समर्पण भाव , परम का द्वार है --गीता ...8.7
समर्पण भाव कब आता है ? जब -----
[क] अहंकार पिघल कर श्रद्धा में बदलनें लगता है । यह तब होता है जब ------
०० मन- बुद्धि स्थिर हों ।
०० तन , मन , बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा प्रवाहित हो रही हो । लेकीन श्री कृष्ण समर्पण की बात अर्जुन से कह रहे हैं जो --
पुर्णतः मोह में डूबा है ।
गीता श्लोक - 8.7 में श्री कृष्ण कहते हैं ------
तूं अपनें मन-बुद्धि को मेरे ऊपर केन्द्रित करके युद्ध कर, ऐसा करनें से तू मुझे समझेगा ।
अर्जुन मोह में दुखी है क्योंकि वह अपनों को खोना नहीं चाहते , अपनों की ममता अर्जुन के लिए बंधन बन गया है ।
दुःख कब आता है ?
[क] जब अहंकार पर चोट लगती है ।
[ख] जब गुणों के बंधन टूटते हैं , गुणों के बंधन हैं --कामना , क्रोध , लोभ , मोह - ममता । गुणों के बंधन
मनुष्य को संसार से पकड़ कर रखते हैं , संसार को समझनें के लिए गुणों के बंधनों को समझना पड़ता है ।
अब आगे ------
[क] गीता सूत्र 2।22 , 2.31 - 2.32 , श्री कृष्ण महाभारत युद्ध को धर्म युद्ध कहते हैं और अर्जुन इसको ब्यापार समझते हैं , यह है बुनियादी अंतर , श्री कृष्ण की सोच में और अर्जुन की सोच में ।
[ख] गीता श्लोक - 8.7 , 10.9 - 10.11 , 18.62 , 18.65 , 18.66
श्री कृष्ण स्वयं को परमात्मा बताते हुए अर्जुन को कहते हैं , तूं अपनें को मुझे समर्पित कर दो , ऐसा करनें से तेरा कल्याण होगा और तूं मुझको समझ लेगा , और अर्जुन कहते है -----
[ग] गीता श्लोक ...2.7 , 10.12 - 10.13 , 11.1 - 11.4 , 11.51
मैं आप की शरण में हूँ , आप मेरे गुरु हैं , आप मेरे मित्र हैं , मैं अब ओह मुक्त हूँ और आप जो कहेंगे वह मैं करूँगा लेकीन ऎसी बात गीता में देखने को नहीं मिलती । अर्जुन की बातें ऊपर - ऊपर से हैं , अन्दर तो मोह भरा है ।
श्री कृष्ण युद्ध को एक माध्यम के रूप में देखते हैं जिस से अर्जुन को तामस गुण से गुनातीत बनाया जा सके और अर्जुन एक कदम भी आगे नहीं चलना चाहते --जो अर्जुन के अन्दर घटित हो रहा है वैसा हम सब के अन्दर हर पल होता रहता है । परम योगी आते हैं , हमें वह कहते हैं जो श्री कृष्ण अर्जुन से कह रहे हैं लेकीन सुनता कौन है ?
समर्पण किया जाना संभव नहीं , यह तो साधना का फल है जो उनको प्रभु के प्रसाद के रूप में मिलता है जो ----
धन्य भागी हैं ।
====ॐ=====
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