गीता श्लोक - 9.2 -9.13
प्रकृति - पुरुष एवं मनुष्य
गीता के दो श्लोक कहते हैं ------
मनुष्यों को दो वर्गों में बाटा जा सकता है ; एक वर्ग वह है जिनका केंद्र भगवान् है और दूसरा वर्ग वह है जिनका केंद्र भोग है । गुणों के आधार पर मनुष्यों की तीन श्रेणियां हैं लेकीन राजस - तामस गुणों वालों को एक श्रेणी में रखा जा सकता है । सात्विक गुण धारी को गीता दैवी प्रकृति वाला कहता है और राजस - तामस गुणों को
जो धारण किये हैं उनको आसुरी प्रकृति वाला कहता है ।
प्रकृति - पुरुष के योग से उत्पन्न मनुष्य सभी जीवों में सर्व संपन्न जीव होते हुए भी सबसे अधिक अतृप्त जीव है ।
आखिर मनुष्य क्या खोज रहा है जिसके मिलनें से वह तृप्त हो सकता है ?
आइन्स्टाइन एक इंच लंबा एक ऐसा सूत्र की तलाश कर रहे थे जो चार प्रकार की ताकतों [forces ] को ब्यक्त करे --इस काम में उनको वह सूत्र तो नहीं मिला लेकीन वे खुद लुप्त हो गए । भोगी - योगी का मार्ग अलग - अलग तो नही है लेकीन लोग इस मार्ग को अलग - अलग देखते हैं जो एक भ्रम है । भोगी कल्पना में जीता है और योगी यथार्थ में ।
योगी भोग तत्वों को समझ कर योग में पहुँच कर योगातीत का आनंद लेता है और भोगी अपनी कभी समाप्त न होने वाली कल्पनाओं के आधार पर कामनाओं में उलझा हुआ अतृप्त अवस्था में एकदिन समाप्त हो जाता है ।
भोगी आवागमन के चक्र में आता - जाता रहता है और गुनातीत योगी आवागमन से मुक्त हो कर प्रभु में होता है ।
ऊपर जो बाते बताई गई हैं उनको आप गीता के निम्न श्लोकों के माध्यम से गीता में देख सकते हैं -------
7.14 - 7.16, 8.6, 15.8, 16.5 - 16.19, 17.4 - 17.22, 18.4 - 18.12, 18.19 - 18.39
गीता के 68 श्लोक जो कहते हैं उसका सारांश आप को ऊपर दिया जा चूका है अब आप उठाइये गीता और एक - एक श्लोक को अपनें साधना का माध्यम बनाइये ।
====ॐ======
Thursday, January 21, 2010
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