Saturday, October 2, 2010

गीता अमृत - 44


कर्म योग समीकरण - 25

गीता के चार श्लोक , देखते हैं , क्या कह रहे हैं ?
[क] सूत्र - 5.10
वह जो आसक्ति रहित हो कर कर्म करता है , भोग कर्मों में भी कमलवत रहता है ॥
[ख] सूत्र - 6.5
शांत मन वाला स्वयं का मित्र होता है ॥
[ग] सूत्र - 6.6
जीता हुआ मन मित्र बन जाता है ॥
[घ] सूत्र - 6.10
एकांत बासी , तन , मन एवं बुद्धि से प्रभु को समर्पित , योगी होता है ॥

चार गीता के श्लोक और उनमें प्रारम्भिक दो बातें - आसक्ति और मित्र समझनें लायक हैं । जब इन दो बातों
की समझ आजाती है तब वह , वह हो जाता है जिसकी बात श्लोक - 6.10 में प्रभु कर रहे हैं ॥
आसक्ति क्या है ?
जब मन - बुद्धि गुणों से सम्मोहित होते हैं तब मनुष्य के द्वारा जो कर्म होते हैं उनमें :----
[क] करता भाव होता है ......
[ख] भोग भाव भरा होता है .....
और इन दो के प्रभाव में :----
[क] मनुष्य का मन अस्थीर होता है
[ख] बुद्धि में संदेह भर जाता है
[ग] और अज्ञान में मनुष्य जो भी करता है , उस से उसे क्षणिक सुख तो मिलता है लेकीन उस सुख में
दुःख का बीज पल रहा होता है । आसक्ति वह ऊर्जा है जो भोग में घसीटती है ।
मित्र कौन है ?
मित्र का अर्थ है - एक का दो रूपों में दिखना अर्थात ऐसे दो आपस में मित्र होते हैं जिनका ----
मन एक हो ......
बुद्धि एक हो .....
सोच एक हो .....
और जब दोनों एक साथ हों तो दोनों शब्द रहित हों ।
शान्त मन वाला स्वयं का मित्र कैसे है ?
शांत मन सत्य की ओर देखता है और सत्य सब का मित्र होता हो ।
दूसरी बात जो गीता कह रहा है , वह है ------
जीता हुआ मन मित्र बन जाता है , कैसे यह संभव है ?
हारानें वाला बाहर बाहर से मित्र जैसा दिखता है लेकीन अन्दर से वह होता है , दुश्मन ही , लेकीन यहाँ
प्रभु कह रहे हैं ----- हारा हुआ मन मित्र बन जाता है , यह बात समझनें लायक है ।
मन का हारना है मन का निर्विकार हो जाना । मन से युद्ध नहीं करना होता , मन को समझ कर उस से
मित्रता स्थापित करनी होती है क्योंकि हमारे पास मात्र मन एक ऐसा तत्त्व है जो प्रभु की तश्वीर को
दिखा सकता है ।
प्रभु कहते भी हैं ------
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि अर्थात .....
इन्द्रियों का केंद्र मन , मैं हूँ । प्रभु का मैं हूँ कहनें का भाव है ......
निर्विकार जो निराकार है , उसे जो देखता है , वह प्रभु को देखता है ॥

==== ॐ =====

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