Sunday, October 31, 2010

ब्रह्म मार्ग का एक और गीता ज्ञान

गीता में ब्रह्म को मन - बुद्धि स्तर पर समझनें के लिए यहाँ एक ऐसा प्रयत्न हो रहा है जो हमेशा
अधूरा ही रहनें वाला है , लेकीन इसमें हर्ज़ ही क्या है ?
आइये ! देखते हैं गीता आगे क्या कह रहा है ?

सूत्र
2.42 , 2.43 , 2.44 , 2.45 , 2.46
यहाँ प्रभु अर्जुन से कहते हैं :--
अर्जुन सुन ! वेदों में स्वर्ग की महिमा गायी गयी है , स्वर्ग में कैसे पहुंचा जाए ,
इसके लिए अनेक साधन भी बताये गए हैं । वेदों में अलंकारिक भाषा में
गुण तत्वों [ भोग तत्वों ] एवं भोग प्राप्ति के रास्तों का वर्णन किया गया है ।
वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को सर्वोपरि बताया गया है ,
लेकीन तू आगे सुन --------
यदि किसी को समुन्द्र मिल गया हो तो उसका सम्बन्ध तालाब से जिसका प्रयोग
वह पहले करता था , क्या रह जाएगा ? ठीक ऎसी ही हाल होती ही
उसकी जिसको
गीता में रस मिलनें लगता है ।
तूं गुण तत्वों [ भोग - भाव ] से ऊपर उठ और अपनें मन - बुद्धि में प्रभु को बसानें का यत्न कर ,
ऐसा करनें से
तेरे को पता चलेगा की ......
तेरे को मनुष्य योनी किस कारण से मिली हुयी है ।

सूत्र - 7.10

यहाँ प्रभु कहते हैं ........
भोग - भाव जिस मन -बुद्धि में के आकर्षण नहीं होते , उनमें मेरा निवास होता है ॥

गीता के छः सूत्र जिनको ऊपर स्पष्ट किया गया , जो प्रभु मार्ग के चिन्ह हैं
उनका सारांश कुछ इस प्रकार होता है ॥

निर्विकार शांत , स्थिर मन - बुद्धि में प्रभु निवाश करते हैं -----
और ....
एक मन - बुद्धि में एक साथ -----
भोग - भाव और प्रभु नही हो सकते ॥

==== ॐ =====

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