Saturday, October 23, 2010

गीता सुगंध - 10

मोह , ज्ञान और ....
ब्रह्म मय

यहाँ देखिये गीता श्लोक -----
श्लोक - 4.34
श्लोक - 4.35, को

श्लोक - 4.34 में प्रभु कहते हैं .......
तूं किसी सत पुरुष के पास जा कर ज्ञान प्राप्त कर , ज्ञान से तेरा मोह दूर होगा और ....
तूं सत को समझ सकेगा ॥

श्लोक - 4.35 में प्रभु कहते हैं .......
ग्यानी को सभी जीव एक के फैलाक रूप में दीखते हैं ॥

अब , जब हम गीता - घाट पर बैठे ही हैं और गीता - गंगा में उतरनें ही वाले हैं तो
एक और गीता श्लोक को देखते हैं -------
श्लोक - 13.31
यहाँ प्रभु कह रहे हैं .......
जो सब को एक के फैलाव रूप में देखता है , वह ब्रह्म मय होता है ॥

ब्रह्म है क्या ?
कुछ लोग ब्रह्म को प्रभु समझते हैं , लेकीन -----
श्री कृष्ण गीता में ब्रह्म की परिभाषा जो देते हैं , उसे हम ....
कल के अंक में देखेंगे ॥

मोह , ज्ञान , ब्रह्म मय होनें आ अपना समीकरण है -----
गुण तत्त्व के प्रभाव वाला ब्यक्ति कभी ब्रह्म की कल्पना तक नहीं कर सकता , वह जो भी करता है , वह
ऊपर - ऊपर से होता है , उसके अन्दर तो अन्धकार ही रहता है , और .....
जो गुण तत्वों की पकड़ से परे है , वह बिना कुछ किये .....
हर पल ब्रह्म मय होता है ,
क्योंकि -----
वह ग्यानी होता है ॥

====== ॐ ======

1 comment:

  1. बहुत सुन्दर मोती चुने हैं ... सुन्दर प्रस्तुति...

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