Friday, October 15, 2010

गीता सुगंध - 3

ज्ञान - योग समीकरण - 3

इदं शरीरं कौन्तेय क्षेत्रं इति अभिधीयते ।
एतत यः वेत्ति: तं प्राहु; क्षेत्रज्ञ: इति तत विद
गीता - 13.2

क्षेत्रज्ञं च अपि मां विद्धि सर्व क्षेत्रेषु भारत ।
क्षेत्र क्षेत्रज्ञयो : ज्ञानं यत तत ज्ञानं मतं मम ॥
गीता - 13.3

प्रभु , अर्जुन से कह रहे हैं ------
अर्जुन मनुष्य की देह जो विकारों से परिपूर्ण है , क्षेत्र कहलाती है और ----
इसको जो समझता है , वह है - क्षेत्रज्ञ ॥
गीता श्लोक 13.2

और गीता श्लोक - 13.3 में प्रभु कहते हैं ----

जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध कराये , वह है ज्ञान ॥

देह का बोध क्या है ?

माया से माया में अपरा प्रकृति के आठ तत्त्व , परा प्रकृति जिसको चेतना कहते है , मन के फैलाव रूप में
दस इन्द्रियाँ , पांच बिषय , ध्रितिका , द्वंद्व , चाह , द्वेष आदि एवं आत्मा - परमात्मा के फ्युसन से हमारा
प्राण मय शरीर है
और प्रभु कह रहे हैं ------
इन सब का बोध जिसको हो
वह है - क्षेत्रज्ञ ॥

ज्ञान क्या है ?

प्रभु कह रहे हैं -------

वह ऊर्जा जो क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ के प्रति होश पैदा करे , वह है - ज्ञान ॥

लगभग 5661 वर्ष पूर्व [B.C.E] प्रभु को जो कहना था कह दिए , आज हम - आप जो चाहें ,
वह अर्थ लगाएं ।
गीता वह ऊर्जा देता है
जिसका .....
प्रारम्भ तो दिखता है लेकीन ...
अंत, अनंत में ही होता होगा ॥

==== ॐ ======

1 comment:

Followers