Monday, October 11, 2010

गीता अमृत - 50


कर्म योग समीकरण - 31

गीता के तीन श्लोक :-----
[क] श्लोक - 2.14
इन्द्रिय सुख - दुःख क्षणिक हैं ॥
[ख] श्लोक - 5.22
इन्द्रिय भोग जो आदि -अंत वाले होते हैं , वे दुःख के श्रोत हैं ॥
[ग] श्लोक - 18.38
इन्द्रियों एवं बिषयों के योग से जो सुख मिलता है उसमें सुख का बीज होता है ॥
अब सोचनें का वक्त आ गया है :
[क] क्या कोई ऐसा भी कर्म है जिसमें इन्द्रियों का एवं बिषयों का सम्बन्ध न हो ?
[ख] क्या कोई ऐसा भी सुख - दुःख हैं जो आदि - अंत वाले न हों ?
गीता एक बात को कई तरीकों से कहता है ; लोग गीता की इन बातों को पढ़ कर अपनें इन्द्रियों को
बिषयों से हठात दूर रखनें का अभ्यास करनें लगते हैं और इस प्रक्रिया में उनका
अहंकार और शक्ति शाली हो उठता है ।
जिस बिषय को हम समझते हैं , वह राग - द्वेष से परिपूर्ण है और इन्द्रिय नाम से जिसको हम जानते हैं , वह
भोग का माध्यम है , यहाँ गीता उस भाषा में बात कर रहा है जिसको हम जानते हैं ।
जब इन्द्रियों में बहनें वाली ऊर्जा निर्विकार हो जाती है तब -----
बिषयों में कोई राग - द्वेष नहीं दिखता ......
तब मन में कोई भोग भाव नहीं उठता ......
और तब काम में भी राम दिखता है और
राग बैराग्य का माध्यम सा दिखता है ॥
भोगी के लिए गीता के तीन श्लोक ऊपर दिए गए हैं , इनकी समझ ही ज्ञान का श्रोत हो सकता है ॥

==== ॐ =======

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