Thursday, September 30, 2010

गीता अमृत - 43


कर्म योग समीकरण - 24

गीता में प्रभु श्री कृष्ण बार - बार अलग - अलग ढंग से एक बात को कहते रहते हैं और वह बात है :----
हे अर्जुन ! तूं आसक्ति के प्रभाव में युद्ध न कर , आसक्ति रहित स्थिति में युद्ध कर , ऐसा करनें से
तुझे सिद्धि मिलेगी और तूं उसे देख सकेगा जो अभी तेरी बुद्धि में नहीं आ पा रहा है ।
प्रभु की इस बात के लिए आप कम से कम गीता में तीन श्लोकों को देखें जो नीचे दिए गए हैं ........
[क] श्लोक - 3.19
प्रभु कहते हैं .........
हे अर्जुन ! अनासक्त भाव में कर्म करनें वाला परम ब्रह्म की अनुभूति से गुजरता है ॥
[ख] श्लोक - 3.20
यहाँ प्रभु कहते हैं .......
अर्जुन ! तूं राजा जनक की कहानी तो सूना ही होगा जिनको बिदेह कहा जाता है और एक सफल सम्राट थे ।
राजा जनक को आसक्ति रहित कर्म करनें से सम भाव की सिद्धि मिली थी जिस से उनको अपनें कर्म में
प्रभु दीखते रहते थे ।
[ग] श्लोक -5.10
प्रभु यहाँ कहते हैं .......
अर्जुन ! तेरे को मालूम होना चाहिए की -----
आसक्ति रहित कर्म करनें वाला भोग कर्मों में भी कमलवत रहता है ॥
यदि कोई हिमालय की सबसे ऊंची छोटी से बोल रहा हो तो हम - आप जो तराई में हैं , क्या उसकी बात को
सुन सकते हैं ? सीधा सा उत्तर है - नहीं ॥
सत पुरुषों से हम क्यों दूर रह जाते हैं ?
सत पुरुषों से हम क्यों नहीं जुड़ पाते ?
सत पुरुष हमें जो बताना चाहते हैं , हम उसे क्यों नहीं समझ पाते ?
इसका कारण एक है :-----
हमारी भाषा भोग की है और .....
उनकी भाषा में योग भरा होता है ॥
वे हिमालय से बोलते हैं और ......
हम पाताल में बैठे होते हैं ॥
योगी की भाषा योगी समझता है ----
भोगी की भाषा भोगी समझता है ॥
योगी और भोगी की दोस्ती संभव नहीं , हाँ ......
भोग से योग में पहुँचना ही हम सब का उद्देश्य है ॥

==== ॐ =====

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