वह फरिस्ता है...उसे जाने दो------
ऊपर नभ में उसे निहारना भी नहीं--
ऊपर देख उसे पुकारना भी नहीं-----
वह जा रहा है---उसे जानें दो.........
वह फरिस्ता है...उसे जानें दो
वह साथ था पर कभीं देखा नहीं
वह अंदर धड़कता था पर कभीं सुना नहीं
वह चलाता था उस ओर मैं चला नहीँ.....
वह फरिस्ता है .....उसे जानें दो
मैं उससे था पर कभीं सोचा नहीं
वह हसाता भी था पर मैं हँसा नहीं
वह चाहता है नभ की सरहद पार करना...उसे करनें दो
वह फरिस्ता है.....उसे जानें दो
वह साथ-साथ था मुझे लेजानेंको
मैं विकारों में फसता चला गया
आज धरा पर गिरा पडा हूँ...पड़े रहनें दो
वह फरिस्ता है....उसे जानें दो
मैं वह न था वह मैं न था
मैं वासना वह प्यार था
वह अपनें परम प्यार से मिलना चाहता है....मिलनें दो
वह फरिस्ता है....उसे जानें दो
मैं भावों में डूबा वह भावातीत है
मैं गुणों में उलझा वह उस पार है
मैं विकारों में अटका वह निर्विकार है
वह फरिस्ता है उसे जानें दो
Friday, February 27, 2009
Thursday, February 26, 2009
शून्य और अनंत
शून्य और अनंत देखा- भारत के ऋषियोंनें
लेकिन............
इनकी गणित बनी पश्चिम में..........क्यों?
अब हम एक सामान्य गणित को देखते हैं
1- any quantity x o = o
2- zero x any quantity =o
3- zero devided by any quantity = o
4- any quantity devided by zero = infinity
5- any quantity to the power zero =1
कबीर साहिब कहते हैं ..........
बूंद समानी समुन्द्रमें क्यों कत खोजी जाय,
समुन्द्र समानी बूंद मह क्यों कत खोजी जाय
यहाँ पहली लाइन में समीकरण नम्बर -१ है और.....
दूसरी लाइनमें समीकरण नम्बर- २ है
तीसरा समीकरण कह रहा है...मन की शुन्यता ही परम शुन्य है,
चौथा समीकरण बता रहा है....विरह की तह में छिपी शुन्यतामें अनंत है........
और पाचवां समीकरण यह बता रहा है की .....बुद्धिमें उपजी शुन्यता ही ब्रह्म है यहाँ
कबीर साहिब अपनें एक समीकरण में अपरा भक्ति की बात बताई है जिसमें भक्त एवं परमात्मा के मध्य कुछ दूरी रहती है जहाँ एक नहीं दो होते हैं लेकिन अपनें दूसरे समीकरण में परा भक्ति की बात बता रहें हैं जहाँ एक, दूसरे में बिलीन होजाता है और जो बच रहता है वह है....ब्रह्म
सूत्र-३ बुद्ध-महाबीर की तरफ़ इशारा करता है जहाँ मन की शुन्यता से परम-शुन्यता मिलती है सूत्र - ४ मीरा के लिए है- जब वे कहती हैं.....अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल मीरा अपनीं वेदना के माध्यम से अनंत को समझ कर तृप्त हो जाती हैंसूत्र-५ है... जे.कृष्णमूर्ती तथा आदि शंकराचार्य जैसे लोगों के लिए जिन्होंनें बुद्धि की शुन्यता से परम सत्य-ब्रह्म को समझा
कंप्यूटर की भाषा शुन्य और एक पर आधारित है जो अपनें में अनंत को पकड़नें की क्षमता रखनें की कोशिश कर रही हैशुन्य ,एक और अनंत को समझनें वाले लोगों नें कंप्यूटर नहीं बनापाये, कंप्यूटर को बनाया उन लोगोंनें जिनको भारत से यह राज मिला
हमारे ऋषि शुन्य,एक एवं अनंत को जानकर पूर्ण तृप्त थे, उस अनुभूति को बुद्धि पर लानें के लिए कभीं सोचा ही नहीं और जिनको यह अनुभूति नहीं हुयी, वे कंप्यूटर बनाकर भी घोर अतृप्त हैं..गीता कहता है ....भूलजाओ की मन-बुद्धि के सहारे तुम कभीं तृप्त हो सकते हो----मन-बुद्धि तो भ्रम पैदा करनें के श्रोत हैं---ब्रह्म और भोग एक साथ एक समय एक बद्धि में नहीं हो सकते
लेकिन............
इनकी गणित बनी पश्चिम में..........क्यों?
अब हम एक सामान्य गणित को देखते हैं
1- any quantity x o = o
2- zero x any quantity =o
3- zero devided by any quantity = o
4- any quantity devided by zero = infinity
5- any quantity to the power zero =1
कबीर साहिब कहते हैं ..........
बूंद समानी समुन्द्रमें क्यों कत खोजी जाय,
समुन्द्र समानी बूंद मह क्यों कत खोजी जाय
यहाँ पहली लाइन में समीकरण नम्बर -१ है और.....
दूसरी लाइनमें समीकरण नम्बर- २ है
तीसरा समीकरण कह रहा है...मन की शुन्यता ही परम शुन्य है,
चौथा समीकरण बता रहा है....विरह की तह में छिपी शुन्यतामें अनंत है........
और पाचवां समीकरण यह बता रहा है की .....बुद्धिमें उपजी शुन्यता ही ब्रह्म है यहाँ
कबीर साहिब अपनें एक समीकरण में अपरा भक्ति की बात बताई है जिसमें भक्त एवं परमात्मा के मध्य कुछ दूरी रहती है जहाँ एक नहीं दो होते हैं लेकिन अपनें दूसरे समीकरण में परा भक्ति की बात बता रहें हैं जहाँ एक, दूसरे में बिलीन होजाता है और जो बच रहता है वह है....ब्रह्म
सूत्र-३ बुद्ध-महाबीर की तरफ़ इशारा करता है जहाँ मन की शुन्यता से परम-शुन्यता मिलती है सूत्र - ४ मीरा के लिए है- जब वे कहती हैं.....अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल मीरा अपनीं वेदना के माध्यम से अनंत को समझ कर तृप्त हो जाती हैंसूत्र-५ है... जे.कृष्णमूर्ती तथा आदि शंकराचार्य जैसे लोगों के लिए जिन्होंनें बुद्धि की शुन्यता से परम सत्य-ब्रह्म को समझा
कंप्यूटर की भाषा शुन्य और एक पर आधारित है जो अपनें में अनंत को पकड़नें की क्षमता रखनें की कोशिश कर रही हैशुन्य ,एक और अनंत को समझनें वाले लोगों नें कंप्यूटर नहीं बनापाये, कंप्यूटर को बनाया उन लोगोंनें जिनको भारत से यह राज मिला
हमारे ऋषि शुन्य,एक एवं अनंत को जानकर पूर्ण तृप्त थे, उस अनुभूति को बुद्धि पर लानें के लिए कभीं सोचा ही नहीं और जिनको यह अनुभूति नहीं हुयी, वे कंप्यूटर बनाकर भी घोर अतृप्त हैं..गीता कहता है ....भूलजाओ की मन-बुद्धि के सहारे तुम कभीं तृप्त हो सकते हो----मन-बुद्धि तो भ्रम पैदा करनें के श्रोत हैं---ब्रह्म और भोग एक साथ एक समय एक बद्धि में नहीं हो सकते
Tuesday, February 24, 2009
राम और मन्दिर
बाबर[१५२६-१५३०] सन १५२८ में अयोध्या में राम-मन्दिर को तोड़वा कर बाबरी मस्जिद बनवाया.....यह बात सभींलोगों के जुबान पर है......हमें राजनीतिसे कुछ लेना -देना नहीं है लेकिन मनुष्य परमात्मा से किस प्रकार जुड़ता है---उस स्थिति को जरुर देखना चाहिए
अकबर[१५४०-१६०५] बाबरी-मस्जिद बननेंके ठीक १२ वर्ष बाद गद्दी पर बैठे जिनके दरबार में अनेक प्रतिष्ठित हिंदू उचे-उचे ओहदों पर थे लेकिन किसी नें राम-मन्दिर की बात नहीं उठाई
अकबर के ही समय में लगभग ४६ वर्ष बाद [सम्बत १६३१] तुलसी दस राम चरित मानस की रचना का प्रारम्भ अयोध्या में किया लेकिन कहीं भी राम-मन्दिर की चर्चा नहीं किया
आप कृपया इस बात पर गहराईसे सोचें
राम जब लंका में युध्य कर रहे थे तो उनकी सेना में कितनें मानव थे,उस समय भी मानव गायब थे ,मानव से उत्तम तो पशु-पंछीथे जिन्होंनें उनका साथ दियासन १५२८ से आज तक हम क्या कर रहें हैं?........आप इस विषय पर गंभीरता से सोचें
जे.कृष्ण मूर्ती कहते हैं........truth is pathless journey
और लओत्सू कहते हैं .....व्यक्त सत्य असत्य होता है
अकबर[१५४०-१६०५] बाबरी-मस्जिद बननेंके ठीक १२ वर्ष बाद गद्दी पर बैठे जिनके दरबार में अनेक प्रतिष्ठित हिंदू उचे-उचे ओहदों पर थे लेकिन किसी नें राम-मन्दिर की बात नहीं उठाई
अकबर के ही समय में लगभग ४६ वर्ष बाद [सम्बत १६३१] तुलसी दस राम चरित मानस की रचना का प्रारम्भ अयोध्या में किया लेकिन कहीं भी राम-मन्दिर की चर्चा नहीं किया
आप कृपया इस बात पर गहराईसे सोचें
राम जब लंका में युध्य कर रहे थे तो उनकी सेना में कितनें मानव थे,उस समय भी मानव गायब थे ,मानव से उत्तम तो पशु-पंछीथे जिन्होंनें उनका साथ दियासन १५२८ से आज तक हम क्या कर रहें हैं?........आप इस विषय पर गंभीरता से सोचें
जे.कृष्ण मूर्ती कहते हैं........truth is pathless journey
और लओत्सू कहते हैं .....व्यक्त सत्य असत्य होता है
मैं और तूं ahankar
मैं में तूं को खोजना, गीता तत्त्व ज्ञान है
मैं में अंहकार और तूं में प्रीतिभरी होती है
मैं का जीवन नरक है और तूं से भरा जीवन का नाम स्वर्ग है
मैं के साथ मानव मानव से पशु बन जाता है
तूं में खोया मानव परम - तुल्य हो जाता है
मैं से तूं में पहुचना ही योग है
योग में मैं पिघल कर प्रीति में बदल जाता है
मैं का कार्य-क्षेत्र मन-बुद्धि तक सीमित है
तूं में डूबा ब्यक्ति अनंत को देखता है
भोगी परमात्मा को संसार में खोजता है.....
अपनें भोग-प्राप्ति के लिए....और योगी
ध्यान में परमात्मा को अपनें ह्रदय में देखता है जो....
परमानन्द है-----गीता-१३.२४
मैं में तूं को पाया औलिया सरमदनें
औलिया सरमद
औलिया सरमद एक यहूदी ब्यापारी था जो जेरुसलेम से दिल्ली तक की यात्रा करता था सरमद औरंगजेब[१६५८-१७०७] के समयसे पहले भी ब्यापार करनें के इरादे से भारत आया करता था
सन १६५९ में औरन्जेब के हुक्म पर औलिया सरमद का सर कलम किया गया ,दिल्ली के जमा मस्जिद की सीडियों पर सरमद घुमते-घुमते बनारस से आगे बिहार में अपनें ब्यापार के सम्बन्ध में एक गाव में पहुँचा जहाँ एक मजार पर भारी भीड़ लगी थी सरमद अपनीं दुकान लगा कर वहां सामान बेचनें लगा
दिन गुजर गया,सूरज डूब चुका था और लोग वापस हो रहे थे,सरमद सोचा चलो अब तो लोग भी जा रहें हैं क्यों न हम भी मत्था टेक लें सरमद मत्था टेका और रात भर उस मजार पर पड़ा रहा सुबह जब उठा तो बोला....या अल्लाह जब इस मिटटी की कब्र में इतना नूर है तो तेरा जलवा कैसा होगासरमद को अपनें मैं नें तूं मिलगया और उसदिन से सरमद सौदागर से औलिया सरमद बन गयासरमद को दिल्ली के मुल्लाओं नें बर्दाश्त नहीं कर पाए और बादशाह को राजी कराकर उसके सर को कलम करा दिया
सरमद का सर सीडियों से लुडकता हुआ एक ही धुन गुनगुना रहा था.......ला इलाही इल अल्लाह
जलाल उद्दीन रूमी[१२०७-१२७३]की एक कहानी है जिसको गुरुवार रबिन्द्र नाथ टगोर भी अपनें कलम से लिखा हैकथा बताती है............
एक प्रेमी अपनें प्रेमिका के दरवाजे पर आवाज लगाता है,अंडर से आवाज आती है...कौन...प्रेमी बोलता है -मैं,प्रेमिका कहती है---यहाँ दो के लिए जगह नहीं है और प्रेमी चुपचाप वहां से चला जाता है काफी समय गुजर गया एक दिन पुनः वह प्रेमी आता है और आवाज लगाता है...आवाज आती है....कौन,प्रेमी कहता है बश अबतो तूं ही तूं है.....कहानी यहीं समाप्त होजाती हैजब मैं से तूं मिलता है तब चेतना ब्रह्म से मिल जाती है जिसको निर्वाण कहते हैं
मैं में अंहकार और तूं में प्रीतिभरी होती है
मैं का जीवन नरक है और तूं से भरा जीवन का नाम स्वर्ग है
मैं के साथ मानव मानव से पशु बन जाता है
तूं में खोया मानव परम - तुल्य हो जाता है
मैं से तूं में पहुचना ही योग है
योग में मैं पिघल कर प्रीति में बदल जाता है
मैं का कार्य-क्षेत्र मन-बुद्धि तक सीमित है
तूं में डूबा ब्यक्ति अनंत को देखता है
भोगी परमात्मा को संसार में खोजता है.....
अपनें भोग-प्राप्ति के लिए....और योगी
ध्यान में परमात्मा को अपनें ह्रदय में देखता है जो....
परमानन्द है-----गीता-१३.२४
मैं में तूं को पाया औलिया सरमदनें
औलिया सरमद
औलिया सरमद एक यहूदी ब्यापारी था जो जेरुसलेम से दिल्ली तक की यात्रा करता था सरमद औरंगजेब[१६५८-१७०७] के समयसे पहले भी ब्यापार करनें के इरादे से भारत आया करता था
सन १६५९ में औरन्जेब के हुक्म पर औलिया सरमद का सर कलम किया गया ,दिल्ली के जमा मस्जिद की सीडियों पर सरमद घुमते-घुमते बनारस से आगे बिहार में अपनें ब्यापार के सम्बन्ध में एक गाव में पहुँचा जहाँ एक मजार पर भारी भीड़ लगी थी सरमद अपनीं दुकान लगा कर वहां सामान बेचनें लगा
दिन गुजर गया,सूरज डूब चुका था और लोग वापस हो रहे थे,सरमद सोचा चलो अब तो लोग भी जा रहें हैं क्यों न हम भी मत्था टेक लें सरमद मत्था टेका और रात भर उस मजार पर पड़ा रहा सुबह जब उठा तो बोला....या अल्लाह जब इस मिटटी की कब्र में इतना नूर है तो तेरा जलवा कैसा होगासरमद को अपनें मैं नें तूं मिलगया और उसदिन से सरमद सौदागर से औलिया सरमद बन गयासरमद को दिल्ली के मुल्लाओं नें बर्दाश्त नहीं कर पाए और बादशाह को राजी कराकर उसके सर को कलम करा दिया
सरमद का सर सीडियों से लुडकता हुआ एक ही धुन गुनगुना रहा था.......ला इलाही इल अल्लाह
जलाल उद्दीन रूमी[१२०७-१२७३]की एक कहानी है जिसको गुरुवार रबिन्द्र नाथ टगोर भी अपनें कलम से लिखा हैकथा बताती है............
एक प्रेमी अपनें प्रेमिका के दरवाजे पर आवाज लगाता है,अंडर से आवाज आती है...कौन...प्रेमी बोलता है -मैं,प्रेमिका कहती है---यहाँ दो के लिए जगह नहीं है और प्रेमी चुपचाप वहां से चला जाता है काफी समय गुजर गया एक दिन पुनः वह प्रेमी आता है और आवाज लगाता है...आवाज आती है....कौन,प्रेमी कहता है बश अबतो तूं ही तूं है.....कहानी यहीं समाप्त होजाती हैजब मैं से तूं मिलता है तब चेतना ब्रह्म से मिल जाती है जिसको निर्वाण कहते हैं
मैं और तूं
मैं तूं का मार्ग है
मैं में तूं को खोजना --- गीता-तत्त्व ज्ञान है
मैं में बश मैं ही मैं होता है..........और--
तूं में मैं भी तूं में घुल जाता है
तूं में प्रीतिका आलम होता है......और--
मैं में गरजता अंहकार
मैं का जीवन नरक है...............और---
तूं से भरा जीवन ............स्वर्ग
मैं में मनुष्य पशु बन जाता है.....और
तूं से भरा मानव परमतुल्य
मैं से तूं में पहुचना ही योग है
योग में मैं प्रीति में बदल जाता है
मैं का कार्य- क्षेत्र मन-बुद्धि तक सीमित है
तूं ह्रदय में धड़कता है
गीता कहता है................
ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है और....
परमात्मा का स्थान ह्रदय है
भोगी परमात्मा को संसार में खोजता है...और
योगी परमात्मा की धड़कन अपनें ह्रदय में सुनता है
भोगी परमात्मा को अपनें भोग के लिए खोजता है
योगी बिना खोजे उसे अपनें
ह्रदय में मह्शूश करता है...गीता 13.२४
मैं में तूं को खोजना --- गीता-तत्त्व ज्ञान है
मैं में बश मैं ही मैं होता है..........और--
तूं में मैं भी तूं में घुल जाता है
तूं में प्रीतिका आलम होता है......और--
मैं में गरजता अंहकार
मैं का जीवन नरक है...............और---
तूं से भरा जीवन ............स्वर्ग
मैं में मनुष्य पशु बन जाता है.....और
तूं से भरा मानव परमतुल्य
मैं से तूं में पहुचना ही योग है
योग में मैं प्रीति में बदल जाता है
मैं का कार्य- क्षेत्र मन-बुद्धि तक सीमित है
तूं ह्रदय में धड़कता है
गीता कहता है................
ब्रह्म की अनुभूति मन-बुद्धि से परे की है और....
परमात्मा का स्थान ह्रदय है
भोगी परमात्मा को संसार में खोजता है...और
योगी परमात्मा की धड़कन अपनें ह्रदय में सुनता है
भोगी परमात्मा को अपनें भोग के लिए खोजता है
योगी बिना खोजे उसे अपनें
ह्रदय में मह्शूश करता है...गीता 13.२४
कौन कब रोता है
बच्चा बात-बात पररोता है,उसके आंशू का कारणवह स्वयं नहीं होता , उसके आसपास के लोग होते हैं जैसे आप-हम जब बच्चा रोनेंलगता है तब उसके आस-पास के लोग उसके पास आजाते हैं,उसके आशुओं में सम्मोहन होता है बच्चे की आशूँ पोछनें वालों किकोई कमी नहीं वही बच्चा एक दिन बड़ा होता है,उसकी शादी होती है और तब जब वह कभीं-कभीं रो पड़ता है तब उसकी पत्नी उसके आशुओं को पोछती है बच्चा गोदी से यहाँ तक कि यात्रा कैसे तय किया इस बात का उसे कोई इल्म नहीं होता समय उसका नामहै जो हर पल आगे बढता रहे, वही बच्चा धीरे-धीरे कब और कैसे बृद्धहो गया इसका भी उसे पता नहीं चल पाता प्रारंभ में तो वह अपनीं बुडापा छिपाता है लेकिन यह एक सत्य है जिसको असत्य छिपा नहीं पाता ब्रिद्धावस्था में वह दिन भीं आ जाता है जब वह अपनें ही घर के आँगन में अपनों के बीच स्वयं को एक बेगानें के रूप में देखनें लगता है यह वही प्यारा गोदी का लाडला है जिसकी आशूँ सब को अपनीं तरफ़ खीच लेती थी,आज जब वह रोता है तो......... बात- उपहलीसके आशूँ बाहर न निकल कर अंडर ही अंदर जमते रहते हैं, कभीं-कभीं यदि दो-एक बूंद बाहर भी आती है तो उनको वह स्वयं इतनीं जल्दी पोछ लेता है कि आस-पास के लोग -उसके अपनें ही लोग देख भी नहीं पाते यह वह स्थिति है- जब अपनें पराये से दीखते हों, आशूँ बाहर न निकलकर अंदर की ओर जाती हो, अपनों को उठाते-उठाते स्वयं झुक गए हों,जब अपनें सभी आप की ओर पीठ करके खड़े हों ,शरीर में कभीं-कभीं कम्पन होता हो तो समझना परमात्मा ज्यादा दूर नहीं है
Friday, February 20, 2009
श्रोता कौन है?
श्रोतापन क्या है?
गीता में परम श्री कृष्ण,अर्जुन,संजय एवं धृतराष्ट्र -चार पात्र हैं,जिनमें संजय परम श्रोता के रूप में परम द्वारा दिए गए ज्ञान को सीधे वेदब्यास जी द्वारा प्राप्त दी गयी ऐश्वर्यदिब्य शक्ति से सुन रहे हैं,धृतराष्ट्र जी को यह ज्ञान संजय से मिल रहा है गीता में धृतराष्ट्र जी कभीं कोई प्रश्न नहीं उठाया और संजय तो परम के साथ मन से जुड़े हुए हैंगीता में अर्जुन सामान्य एक भोगी की भुमिका में हैं जो प्रारंभ से अंत तक मोह में डूबे हुए दिखते हैं मात्र श्लोक १८.७३ को छोड़ कर श्रोता की पहचान क्या है?
गीता में परम श्री कृष्ण,अर्जुन,संजय एवं धृतराष्ट्र -चार पात्र हैं,जिनमें संजय परम श्रोता के रूप में परम द्वारा दिए गए ज्ञान को सीधे वेदब्यास जी द्वारा प्राप्त दी गयी ऐश्वर्यदिब्य शक्ति से सुन रहे हैं,धृतराष्ट्र जी को यह ज्ञान संजय से मिल रहा है गीता में धृतराष्ट्र जी कभीं कोई प्रश्न नहीं उठाया और संजय तो परम के साथ मन से जुड़े हुए हैंगीता में अर्जुन सामान्य एक भोगी की भुमिका में हैं जो प्रारंभ से अंत तक मोह में डूबे हुए दिखते हैं मात्र श्लोक १८.७३ को छोड़ कर श्रोता की पहचान क्या है?
- जो संदेह रहित हो.......
- जो संकल्प रहित हो....
- जो श्रद्धा से भरा हो......
- जिसमें पूर्ण समर्पण का भाव भरा हो......
- जिसका मन स्थिर हो तथा बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि हो.....
श्रोता होता है तथा उसके मन दर्पण पर परमात्मा प्रतिबिम्बित होता है
गीता-तत्त्व विज्ञान
उजाले अपनीं यादों के हमारे साथ रहनें दो,
न जानें किस गली में जिन्दगी की साम हो जाए
कबिके भावको समझनें का प्रयाश करें , हो सकता है आप को वह मिल सके जिसको आप अनजानें में तलाश रहें होंलिखनें वाला उजाले तथा अंधेरे को अच्छी तरह से समझता है और किसी भी हालत में उजाले को खोना नहीं चाहता आपअपनें खोज के बारे में सोचना,क्या पता आप भी अनजानें में उजाले को ही खोज रहे हों? कबि और हम में अन्तर है--कबि को उजाले-अंधेरे का पता है लेकिन हम अंधेरे में रहते-रहते इतने अभ्यस्त हो चुके हैं कि हम न तो अंधेरे को जानते हैं और न ही उजाले कोइतना ध्यान रखें कि उजाले का रास्ता अंधेरे से निकलता है
गीता सतयुग,त्रेता-युग,द्वापर-युग तथा कलि-युग....चार युगों की बात करता है लेकिन
अब इस शताब्दी में विज्ञानके विकास को देखनें से ऐसा लगनें लगा है कि अब भोग-युग
प्रारम्भ हो चुका हैक्या आप को ऐसा नहीं लगता कि विज्ञान आए दिन जैसे-जैसे भोग-साधनों को विकसित करता जा रहा है,हम और-और तनहा होते जा रहे हैं ---इसका क्या कारन हो सकता है?क्या विज्ञान की खोजें मनुष्य को तनहा बनानें के लिए ही हैं?गीता कहता है---विज्ञान एवं तन्हाई दोनों तुम्हारी देन हैं,विज्ञान तुम्हें तनहा नहीं बना रहा तुम तनहा बना रहना चाहते हो-तुम्हें तन्हाई के रस का स्वाद भा गया हैमनुष्य अपनी मुट्ठी खोलना भी नहीं चाहता और अपनें बंद मुट्ठी में कुछ और को पकड़ना भी चाहता है--क्या ऐसा सम्भव हो सकता है?विज्ञान में आज तक कोई ऎसी सूचना[information]नहीं मिल पाई है जो स्थिर हो फ़िर हम भोग में क्यों बनें रहना चाहते हैं?गीता कहता है ---भोग में जितना तुम तैरना चाहते हो तैर लो अंततः तुम्हें आगे चलाना ही पडेगा योग का द्वार भोग है तुम द्वार को अपना घर नहीं बना सकतेतुम ऐसा समझो कि जब तक तुम तनहा हो,भोग में हो और जिस दिन परमानन्द से भर जावोगे ,तुम योग में होगेगीता-तत्त्व विज्ञान कमसे कम चार हजार साल पुराना तो है ही पर इसमें छिपा मनोविज्ञान आज के मनोविज्ञान से आगे की बात को वैज्ञानिक ढंग से स्पष्ट करता है
गीता-तत्त्व विज्ञान में आप भोग-तत्वों को समझ कर योग में प्रवेश करेंगे जहा आप को
वह दिखानें लगेगा जिसकी कल्पना भी अभी सम्भव नहीं हो सकतीकामना से सम-भाव,राग से वैराग तथा अंहकार से श्रधा की यात्रा का नाम गीता-तत्त्व विज्ञान है
गीता तत्त्व विज्ञानं---क्रमशः
सतगुण से मनुष्य परमात्माकी ओर मुड़ता है, राजस से भोग तत्वों में आसक्त होता है और तामस से भय,आलस्य तथा मोह से बधता हैभोग-भगवानको एक साथ एक बुद्धि में रखना असंभव हैसंकल्प धारीयोगी नहीं हो सकता [गीता-6.4] ,संकल्पों का त्यागी योगी होता है[गीता-6.2] संकल्प से कामना उठती है[गीता-6.24],कामना टूटनें पर क्रोध पैदा होता है[गीता-2.62],राजस से रूप,रंग,कामना तथा लोभ आता है राजस भोग में रूचि पैदा करता है और तामस से भय तथा मोह आते हैंकाम,क्रोध और लोभ नरक के द्वार हैं
गीता तत्त्व विज्ञानं
गीता वेदांत है
गीता वेदांत है ....इस बात को समझनें के लिए हमें गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए
-------------------------------------------------------------------------------------------------
2.42,2.43,2.44,2.45,2.52,2.62,3.5,3.27,3.34,5.22,6.2,6.4,6.24,6.27,6.37-6.44,14.5,14.9,14.12,14.16,14.17,16.21,18.19,18.38,
गीता वेदांत है---इस बात के सम्बन्ध में यहाँ कुछ बातोंको दिया जा रहा है जो गीता तत्त्व - विज्ञानं का एक अंश मात्र है आप से प्रार्थना है किआप यहाँ बताई जा रही बातों पर मनन करें
उपर गीता के सातअध्यायों के 22 सूत्र दिए गए हैं जिनसे एक ऐसी उर्जा निकलती है जो आप में इन्द्रियों से बुद्धि तक बहनें वाली उर्जा को रूपांतरित करके आप को परम श्री कृष्ण की तरफ़ मोड़ सकते हैं
गीता एक परम चुम्बक है जो बिना बताये अपनी तरफ़ ऐसे खिचता है किपता भी नहीं चलता
वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को परम माना गया है और भोग तथा भोग साधनों कीप्रसंशा की गयी है ....यहाँ देखिये गीता सूत्र 6.37--6.44 तकगीता बताता है----ऐसे योगी जिन्का योग खंडित हो जाता है वे कुछ समय स्वर्ग में रह कर भोग से तृप्त होते हैं और फ़िर मृत्यु लोक में जन्म ले कर अपनी साधना पूरी करते हैं गीता स्पष्ट रूप से कहता है......दो प्रकार के योगी होते हैं --एक ऐसे योगी हैं जो वैराग्य अवस्था प्राप्त करनें के बाद शरीर छोड़ते हैं जब उनकी साधना पूरी तरह पक गयी होती है,वे स्वर्ग न जाकर सीधे किसी उत्तम-कुल में जन्म लेकर वैराग्य से आगे की साधना - यात्रा करते हैंदूसरे प्रकार के योगी वे हैं जो वैराग्य प्राप्ति से पहले और साधना खंडित होनें पर यदि उनका शरीर छुट जाता है तब ऐसे योगी स्वयं को स्वर्ग में अतृप्त कामनाओं से तृप्त करके जन्म लेते हैं तथा प्रारम्भ से साधना शुरू करते हैंगीता कहता है...गीता का स्वाद जिनको मिलजाता है उनका वेदों से अधिक सम्बन्ध नहीं रह पता वेदों की सीमा गुणों तक
सीमित है और गीता गुणों से उस पार की यात्रा कराकर परम गति तक पहुंचाता है
सात्विक ,राजस तथा तामस तीन गुणों से मनुष्य का जीवन नियंत्रित होता है
गुणों की चर्चा आगे चलकर विस्तार से होगी लेकिन यहाँ इतना जानना जरुरी है की तीन गुणों से आत्मा
स्थूल शरीर में होता हैअब आप सोचें...गीता एक तरफ़ गुणों के बंधन से मुक्त करना चाहता है और दूसरी तरफ़ यह भी कहता है की आत्मा को शरीर में गुणों का बंधन रोकता है....अर्थात गुणों से मुक्त योगी किसी भी समय अपना शरीर छोड़ सकता है.......इस सम्बन्ध में परमहंश रामकृष्ण कहते हैं.......मायामुक्त योगी तीन सप्ताह से अधिक समय तक शरीर के साथ नहीं रह सकता क्रमशः अगले अंक में
गीता वेदांत है ....इस बात को समझनें के लिए हमें गीता के निम्न सूत्रों को देखना चाहिए
-------------------------------------------------------------------------------------------------
2.42,2.43,2.44,2.45,2.52,2.62,3.5,3.27,3.34,5.22,6.2,6.4,6.24,6.27,6.37-6.44,14.5,14.9,14.12,14.16,14.17,16.21,18.19,18.38,
गीता वेदांत है---इस बात के सम्बन्ध में यहाँ कुछ बातोंको दिया जा रहा है जो गीता तत्त्व - विज्ञानं का एक अंश मात्र है आप से प्रार्थना है किआप यहाँ बताई जा रही बातों पर मनन करें
उपर गीता के सातअध्यायों के 22 सूत्र दिए गए हैं जिनसे एक ऐसी उर्जा निकलती है जो आप में इन्द्रियों से बुद्धि तक बहनें वाली उर्जा को रूपांतरित करके आप को परम श्री कृष्ण की तरफ़ मोड़ सकते हैं
गीता एक परम चुम्बक है जो बिना बताये अपनी तरफ़ ऐसे खिचता है किपता भी नहीं चलता
वेदों में स्वर्ग प्राप्ति को परम माना गया है और भोग तथा भोग साधनों कीप्रसंशा की गयी है ....यहाँ देखिये गीता सूत्र 6.37--6.44 तकगीता बताता है----ऐसे योगी जिन्का योग खंडित हो जाता है वे कुछ समय स्वर्ग में रह कर भोग से तृप्त होते हैं और फ़िर मृत्यु लोक में जन्म ले कर अपनी साधना पूरी करते हैं गीता स्पष्ट रूप से कहता है......दो प्रकार के योगी होते हैं --एक ऐसे योगी हैं जो वैराग्य अवस्था प्राप्त करनें के बाद शरीर छोड़ते हैं जब उनकी साधना पूरी तरह पक गयी होती है,वे स्वर्ग न जाकर सीधे किसी उत्तम-कुल में जन्म लेकर वैराग्य से आगे की साधना - यात्रा करते हैंदूसरे प्रकार के योगी वे हैं जो वैराग्य प्राप्ति से पहले और साधना खंडित होनें पर यदि उनका शरीर छुट जाता है तब ऐसे योगी स्वयं को स्वर्ग में अतृप्त कामनाओं से तृप्त करके जन्म लेते हैं तथा प्रारम्भ से साधना शुरू करते हैंगीता कहता है...गीता का स्वाद जिनको मिलजाता है उनका वेदों से अधिक सम्बन्ध नहीं रह पता वेदों की सीमा गुणों तक
सीमित है और गीता गुणों से उस पार की यात्रा कराकर परम गति तक पहुंचाता है
सात्विक ,राजस तथा तामस तीन गुणों से मनुष्य का जीवन नियंत्रित होता है
गुणों की चर्चा आगे चलकर विस्तार से होगी लेकिन यहाँ इतना जानना जरुरी है की तीन गुणों से आत्मा
स्थूल शरीर में होता हैअब आप सोचें...गीता एक तरफ़ गुणों के बंधन से मुक्त करना चाहता है और दूसरी तरफ़ यह भी कहता है की आत्मा को शरीर में गुणों का बंधन रोकता है....अर्थात गुणों से मुक्त योगी किसी भी समय अपना शरीर छोड़ सकता है.......इस सम्बन्ध में परमहंश रामकृष्ण कहते हैं.......मायामुक्त योगी तीन सप्ताह से अधिक समय तक शरीर के साथ नहीं रह सकता क्रमशः अगले अंक में
Thursday, February 19, 2009
गीता को कैसे पढ़ना चाहिए?
पिछले अंक में हमनें भोग - वैराग की बातदेखीअबहम कुछ और बातोंको देखते हैं
गीता में सूत्र १८.६१ तक ऐसा नहीं दिखता किअर्जुन के उपर परम श्री कृष्ण के ज्ञान एवं कर्म योग का कोई असर पड़ पाया है लेकिन सूत्र १८.73के माध्यम से अर्जुन स्वयं को कैसे समर्पित कर पाए हैं?गीता के इस रहस्य को आप गीता सूत्र १८.६२ से १८.७२ तक में खोजें
गीता में सूत्र १८.६१ तक ऐसा नहीं दिखता किअर्जुन के उपर परम श्री कृष्ण के ज्ञान एवं कर्म योग का कोई असर पड़ पाया है लेकिन सूत्र १८.73के माध्यम से अर्जुन स्वयं को कैसे समर्पित कर पाए हैं?गीता के इस रहस्य को आप गीता सूत्र १८.६२ से १८.७२ तक में खोजें
- सूत्र १८.६२ में परम अर्जुन को परमात्मा की शरण में जाने की बात पहली बार कहते हैं ,इसके पहले स्वयं कोही परमात्मा कहते रहे हैं
- अर्जुन मोह ग्रसित हैं और ऐसा ब्यक्ति भयभीत होनें के कारणसहारा चाहता हैअभींतक अर्जुनको परम का सहारा था लेकिन यहाँ उनका सहारा कुछ कमजोर होता दीखता हैमोह में ऋणात्मक
- अंहकार होता है जिसके कारण से ब्यक्ति स्वयं को कमजोर समझता है और अप्रत्यक्ष रूप में सहायता चाहता है
- गीता सूत्र १८.६३ में परम कहते हैं......मुझे जो बताना था ,बता दिया है,अब तूं जो चाहे वैसा कर
- गीता-सूत्र १८.६६ में पुनः कहते हैं.....तूं सब धर्मों को छोड़ कर मेरे शरण में आ जा मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर्दूंगा
- गीता सूत्र १८.६७ में परम कहते हैं.....नास्तिक ब्यक्ति के सामनें गीता की चर्चा नहींकरनी चाहिए
- गीता सूत्र १८.६८ से १८.७१ तक में परम पुनः सांत्वना दे रहे हैं क्योंकि वे अर्जुन में बदलाव देख रहे होंगे
- अब जब परम को पूरा यकीन हो जाता है तब सूत्र १८.७२ में पूछते हैं .....क्या तूनें गीता सुना क्या तेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हुआ?
- अब अर्जुन को सूत्र - १८.७३ में यह पता चल जाता है........मोह,संशय और स्मृति में क्या सम्बन्ध होता है
- गीता-सूत्र १८.६२ से १८.७१ तक में परम अर्जुन पर एक मनो वैज्ञानिक दबाव बनते हैं जिसका परिणाम भी अर्जुन पर सही दिखता है
- परम श्री कृष्ण अर्जुन के साथ तन से हैं और मन कहीं और होनें से उनके अंदर का निराकार ब्रह्म अर्जुन को नहीं दिख पा रहा जबकि संजय तन से दूर हैं पर मन से समीप होनें के कारण श्री कृष्ण में निराकार ब्रह्म को देख रहेहैं
Wednesday, February 18, 2009
पिछले अंक का संशोधन
गीता में अर्जुन के १०३ सूत्र हैं और संजय के ४० सूत्र हैं कृपया भूल के लिए क्षमा करें
गीता-साधना
गीता-साधना
गीता के सम्बन्ध में अभींतक हम उन बातोंको लिया है जिनका सीधा सम्बन्ध साधना से है
गीता में ७०० श्लोकों को १८ अध्यायों में बिभक्तकिया गया है जिनमें पहला श्लोक धृत रास्ट्रजी का
है,५५६ श्लोक परम श्री कृष्ण के हैं,१०३ श्लोक अर्जुन के हैं और १०३ श्लोक संजय के हैं
गीता जैसा उपलब्ध है यदि आप वैसे ही पढेंगेतो आप को वह नहीं मिल पायेगा जो आप की खोज
है अतः आप को गीता पढनें की कला आनीं चाहिए
गीता पढ़नें की कला
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्ब्यतितरिष्यति
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतब्यस्य श्रुतस्यच .......श्लोक २.५२
इस श्लोक का भाव है ....मोह के साथ बैराग्य नहीं मिल सकता
इस सन्दर्भ में आप श्लोक ६.२७ को भी देखें जो कहता है..........
राजस गुंड के साथ परमात्मा से जुड़ना असंभव है
मोह तामस का तत्त्व है और राजस के तत्त्व हैं काम,कामना तथा भोग
गीता के ऊपर दिए गए दो सूत्र स्पष्ट रूप से कह रहे हैं .....राजस तथा तामस गुंडों के साथ परमात्मा
से जुड़ना असंभव हैगीता श्लोक ६.२७ अर्जुन के पांचवे प्रश्न के सन्दर्भ में बोला गया है इस प्रश्न में
अर्जुन पूछते हैं....आप कर्म योग तथा कर्म-संयाश दोनों की बातें कर रहे हैं लेकिन मेरे लिए कौन
सा उत्तम है?परम आगे श्लोक ५.६ में कहते हैं ......कर्म-योग कर्म-संयाश कम माद्यम है अतः दोनों
भ्रम नहीं होना चाहिए अब आप गीता सूत्र ३.४,३.२०,१८.४९,१८.५०,३.५,५.२२,६.३०,९.२९,१८.११,१८.३८,१८.४८,१८.५४,१८.५५ को देखिये तब आप को एक समीकरण मिलेगा जो कर्म तथा कर्म -योग एवं कर्म-संयाश को स्पष्ट करेगा
गीता यहाँ बताता है..........कर्म-त्याग से नैष्कर्म्य -सिद्धि नहीं मिल सकती ,यह आसक्ति रहित कर्म से
मिलती हैयह सिद्धि ज्ञान योग की पारानिष्ठा है,अब आप गीता समीकरण को पुरी तरह देखें
जिव धारी एक पल के लिए भी कर्म रहित नहीं होसकता , ऐसा कोई कर्म नहीं है जिसमे दोष न हों
गुणों से कर्म होते हैं और ऐसे कर्म भोग होते हैंभोग कर्म के सुख में दुःख कम बीज होता है
गीता में गीता -शब्दोंका गीता में भाव खोजना गीता की साधना है और अपना भाव रखना अंहकार को
सघन करता है अतः आप से प्रार्थना है की गीता शब्दों कम आप अर्थ गीता में ही खोजें
गीता सूत्र २.५२ बताया की मोह के साथ वैराग्य नहीं मिलता फ़िर हमें देखना पड़ेगा ,वैराग्य क्या है?
गीता सूत्र १५.३ कहता है....वैराग्य में संसार को जाना जाता हैसंसार को समझनें के लिए गीता सूत्र १५.२,१५.२,१५,३ को देखना चाहिए जो कहते हैं ......तीन गुणों के माया माध्यम में परमात्मा से परमात्मा में संसार हैसंसार अविनाशी है लेकिन इसकी स्थिति अच्छी तरह से नहीं है वैराग्य में
ज्ञान मिलता है ,ज्ञान वह है जिस से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के प्रति होश उपजता हैवैराग्य स्व का कृत्य नहीं यह तो प्रभू का प्रसाद है जो साधना के फलित होनें पर मिलता हैगीता को तोते की तरह याद करना तो बहुत आसान है लेकिन गीता में तैर कर गीता मोतियों को इकट्ठा करना अति कठिन काम है और उन मोतियों में बसना और भी कठिन है........क्या आप तैयार हैं?
गीता के सम्बन्ध में अभींतक हम उन बातोंको लिया है जिनका सीधा सम्बन्ध साधना से है
गीता में ७०० श्लोकों को १८ अध्यायों में बिभक्तकिया गया है जिनमें पहला श्लोक धृत रास्ट्रजी का
है,५५६ श्लोक परम श्री कृष्ण के हैं,१०३ श्लोक अर्जुन के हैं और १०३ श्लोक संजय के हैं
गीता जैसा उपलब्ध है यदि आप वैसे ही पढेंगेतो आप को वह नहीं मिल पायेगा जो आप की खोज
है अतः आप को गीता पढनें की कला आनीं चाहिए
गीता पढ़नें की कला
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्ब्यतितरिष्यति
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतब्यस्य श्रुतस्यच .......श्लोक २.५२
इस श्लोक का भाव है ....मोह के साथ बैराग्य नहीं मिल सकता
इस सन्दर्भ में आप श्लोक ६.२७ को भी देखें जो कहता है..........
राजस गुंड के साथ परमात्मा से जुड़ना असंभव है
मोह तामस का तत्त्व है और राजस के तत्त्व हैं काम,कामना तथा भोग
गीता के ऊपर दिए गए दो सूत्र स्पष्ट रूप से कह रहे हैं .....राजस तथा तामस गुंडों के साथ परमात्मा
से जुड़ना असंभव हैगीता श्लोक ६.२७ अर्जुन के पांचवे प्रश्न के सन्दर्भ में बोला गया है इस प्रश्न में
अर्जुन पूछते हैं....आप कर्म योग तथा कर्म-संयाश दोनों की बातें कर रहे हैं लेकिन मेरे लिए कौन
सा उत्तम है?परम आगे श्लोक ५.६ में कहते हैं ......कर्म-योग कर्म-संयाश कम माद्यम है अतः दोनों
भ्रम नहीं होना चाहिए अब आप गीता सूत्र ३.४,३.२०,१८.४९,१८.५०,३.५,५.२२,६.३०,९.२९,१८.११,१८.३८,१८.४८,१८.५४,१८.५५ को देखिये तब आप को एक समीकरण मिलेगा जो कर्म तथा कर्म -योग एवं कर्म-संयाश को स्पष्ट करेगा
गीता यहाँ बताता है..........कर्म-त्याग से नैष्कर्म्य -सिद्धि नहीं मिल सकती ,यह आसक्ति रहित कर्म से
मिलती हैयह सिद्धि ज्ञान योग की पारानिष्ठा है,अब आप गीता समीकरण को पुरी तरह देखें
जिव धारी एक पल के लिए भी कर्म रहित नहीं होसकता , ऐसा कोई कर्म नहीं है जिसमे दोष न हों
गुणों से कर्म होते हैं और ऐसे कर्म भोग होते हैंभोग कर्म के सुख में दुःख कम बीज होता है
गीता में गीता -शब्दोंका गीता में भाव खोजना गीता की साधना है और अपना भाव रखना अंहकार को
सघन करता है अतः आप से प्रार्थना है की गीता शब्दों कम आप अर्थ गीता में ही खोजें
गीता सूत्र २.५२ बताया की मोह के साथ वैराग्य नहीं मिलता फ़िर हमें देखना पड़ेगा ,वैराग्य क्या है?
गीता सूत्र १५.३ कहता है....वैराग्य में संसार को जाना जाता हैसंसार को समझनें के लिए गीता सूत्र १५.२,१५.२,१५,३ को देखना चाहिए जो कहते हैं ......तीन गुणों के माया माध्यम में परमात्मा से परमात्मा में संसार हैसंसार अविनाशी है लेकिन इसकी स्थिति अच्छी तरह से नहीं है वैराग्य में
ज्ञान मिलता है ,ज्ञान वह है जिस से क्षेत्र एवं क्षेत्रज्ञ के प्रति होश उपजता हैवैराग्य स्व का कृत्य नहीं यह तो प्रभू का प्रसाद है जो साधना के फलित होनें पर मिलता हैगीता को तोते की तरह याद करना तो बहुत आसान है लेकिन गीता में तैर कर गीता मोतियों को इकट्ठा करना अति कठिन काम है और उन मोतियों में बसना और भी कठिन है........क्या आप तैयार हैं?
गीता - वाणी
देखिये गीता श्लोक ५.१४,५.१५
परमात्मा किसी के कर्म,कर्म-फल,करता-भावकी रचना नहीं करतापरमात्मा किसी के अच्छे-बुरे कर्मों
परमात्मा सत भी है और असतभी है
परमात्मा न तो सत है और न ही असत है
फ़िर
परमात्मा क्या है?..........इस परचर्चा होगी-आगे चलकर
परमात्मा किसी के कर्म,कर्म-फल,करता-भावकी रचना नहीं करतापरमात्मा किसी के अच्छे-बुरे कर्मों
को ग्रहण भी नहीं करताजो लोग अज्ञानी हैं वे इसके बिपरीत सोचते हैं
देखिये गीता - श्लोक ९.१९ -९.२९-१३.१२
परमात्मा का कोई प्रिय या अप्रिय नहीं है परमात्मा सत भी है और असतभी है
परमात्मा न तो सत है और न ही असत है
फ़िर
परमात्मा क्या है?..........इस परचर्चा होगी-आगे चलकर
संसार-परमात्मा
राग से संसार और वैराग से परमात्मा
आशक्ति से संसार और विरक्ति से परमात्मा
चाह से संसार और उदासीनता से परमात्मा
संदेह से संसार और श्रद्धा से परमात्मा
अहंकार से संसार और प्यार से परमात्मा
से
जुड़ना सम्भव होता है
यदि आप गीता से जुड़ना चाहते हैं तो आप इसमंत्र को अपनें अंदर अच्छी तरह से बैठा लें
आशक्ति से संसार और विरक्ति से परमात्मा
चाह से संसार और उदासीनता से परमात्मा
संदेह से संसार और श्रद्धा से परमात्मा
अहंकार से संसार और प्यार से परमात्मा
से
जुड़ना सम्भव होता है
यदि आप गीता से जुड़ना चाहते हैं तो आप इसमंत्र को अपनें अंदर अच्छी तरह से बैठा लें
गीता-बूँदें
ऋषि एवं वैज्ञानिक
ऋषि की यात्रा सत्य परआधारित होती है और वैज्ञानिक की यात्रा संदेह पर आधारित है--जितना गहरा संदेह
होगा उतनी गहरी बात निकलेगी ऋषि का मन स्थिर तथा बुद्धि संदेह रहित होती है और वैज्ञानिक का मन
चंचल एवं बुद्धि भ्रमित रहती हैवैज्ञानिक जो कुछ भी बोलता है वह उसको सिद्ध करना चाहता है लेकिन ऋषि
पहले तो बोलता ही बहुत कम है उसे बुलवाया जाता है और जो बोलता है उसे सिद्ध करने की बात उसके अंदर
आती ही नहीं वैज्ञानिक अपनी बात को क्यों सिद्ध करता है?इसका दो कारणहैं ......पहला कारण उसका
अंहकार है और दूसरा कारण उसका भय है वैज्ञानिक की सीमा मन-बुद्धि तक है और ऋषि मन-बुद्धि से
परेचेतना-मध्यमसे अनंत से जुड़ जाता हैकुछ ऐसे भी वैज्ञानिक हैं जिन्होंनें ऋषि की तरह बुद्धि से परे की
उडान अनजानें में भरी हैआइंस्टाइन सन १९०५ में मास-उर्जा समीकरण दिया जबकि ऎटमकी संरचना
सन १९३२ में पुरी हो पाईयह बात सोचनें की हैगीता-मोटी आप को विज्ञानं के मध्यम से परम ज्ञान
की ओरइशारा करेगा अंततः यात्रा तो आप को ही करनी हैजब तक आप की मैत्री इन्द्रियों से नहीं होती
जबतक मन नियोजित नही होता और बुद्धि संशय रहित नही होती तबतक अहंकार श्रद्धा में नही बदल
सकता और तबतक सत्य की खुशबू नहीं मिल सकती
ऋषि की यात्रा सत्य परआधारित होती है और वैज्ञानिक की यात्रा संदेह पर आधारित है--जितना गहरा संदेह
होगा उतनी गहरी बात निकलेगी ऋषि का मन स्थिर तथा बुद्धि संदेह रहित होती है और वैज्ञानिक का मन
चंचल एवं बुद्धि भ्रमित रहती हैवैज्ञानिक जो कुछ भी बोलता है वह उसको सिद्ध करना चाहता है लेकिन ऋषि
पहले तो बोलता ही बहुत कम है उसे बुलवाया जाता है और जो बोलता है उसे सिद्ध करने की बात उसके अंदर
आती ही नहीं वैज्ञानिक अपनी बात को क्यों सिद्ध करता है?इसका दो कारणहैं ......पहला कारण उसका
अंहकार है और दूसरा कारण उसका भय है वैज्ञानिक की सीमा मन-बुद्धि तक है और ऋषि मन-बुद्धि से
परेचेतना-मध्यमसे अनंत से जुड़ जाता हैकुछ ऐसे भी वैज्ञानिक हैं जिन्होंनें ऋषि की तरह बुद्धि से परे की
उडान अनजानें में भरी हैआइंस्टाइन सन १९०५ में मास-उर्जा समीकरण दिया जबकि ऎटमकी संरचना
सन १९३२ में पुरी हो पाईयह बात सोचनें की हैगीता-मोटी आप को विज्ञानं के मध्यम से परम ज्ञान
की ओरइशारा करेगा अंततः यात्रा तो आप को ही करनी हैजब तक आप की मैत्री इन्द्रियों से नहीं होती
जबतक मन नियोजित नही होता और बुद्धि संशय रहित नही होती तबतक अहंकार श्रद्धा में नही बदल
सकता और तबतक सत्य की खुशबू नहीं मिल सकती
Tuesday, February 17, 2009
मनुष्य की दशा
मनुष्य जीवों का सम्राट हो क़रभी क्यों अतृप्त है?
मनुष्य तीन चीजों से डरता है ........प्रेम,परमात्मा और मृत्यु मनुष्य भय के साथ इन तीनों की खोज में
अपना जीवन अतृप्त ता में कब और कैसे पूरा कर लेता है उसे भनक भी नहीं मिल पातीमनुष्य प्रेम केलिए
संम्बंध बंनाताहै,परमात्मा केलिए मन्दिर-निर्माण करता है और मृत्यु पर विजय प्राप्त करनें केलिए
विज्ञानं विकसित कर रहा हैअब आप सोचें.......क्या इन तीन से हम तृप्त हैं?.....उत्तर है -नहीं ...ऐसा क्यों ?
मनुष्य अन्य जीवों से भिन्न है क्योंकि मनुष्य के जीवन में भोग-भगवान दो केन्द्र हैं एवं अन्य
जीवों का जीवन केवल भोग केंद्रित होता है
मनुष्य जब परमात्मा की तरफ़ मुड़ता है तब भोग उसे अपनी तरफ़ खीच लेता है और जब भोग
में उतरता है तब परमात्मा की स्मृति उसे अतृप्त करती है....यह दो ध्रुवी समीकरण में उलझा
मनुष्य अतृप्ति के फलस्वरूप पैदा होता है और अतृप्ति में दम तोड़ता है
तंत्र कहता है ...बिषय बदलनें से वासना को नहीं समझा जा सकता-वासना को समझनें
के लिए स्वयं को समझना जरुरी हैइस सम्बन्ध में गीता कहता है......भोग एवं भगवान को एक
साथ एक समयमें एक बुद्धि में नहीं रखा जा सकताएक बात और आप समझलें ...भोगी योगी को
नहीं समझ सकता,योगी को योगी समझता हैभोगी निराकार में भी साकार देखता है और योगी
साकार में निराकार को देखकर धन्य हो जाता हैगीता-मोटी वह माद्यम है जो आप को साकार
भगवद - गीता में निराकार गीता से मिलानें का कम करता है.....ॐ.....क्रमशः........
गीता-मंत्र
गीता के श्लोक १५.१३ तथा १५.१४ कम से कम ४००० वर्ष पुरानें तो हैं, लेकिन इनपर शोध कार्य भारत में नहीं होपाया, क्यों?
श्लोक १५.१३ कहता है.....पृथ्वी की धारण करनें की शक्ति [gravity] को समझना ही परमात्मा को समझना है , गीता श्लोक १५.१४ कहता है.....जो श्वाश हम लेते हैं तथा जो श्वाश हम छोड़ते हैं दोनों का समीकरण हमारे पाचन क्रिया को नियंत्रित करता है ! अब आप इन दो बातोंपर चिंतन करें
Sir Issac Newton ने जो गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत दिया उसपर आज का विज्ञानं आधारित है पर यह सिद्धांत भी संदेह से अछुता नहीं है क्योकि Einstein इसपर पुरी तरह से सहमत नहीं थे गीता श्लोक १५.१४ योगाचार्यो द्वारा बताया तो जा रहा है पर वैज्ञानिक रूप से इस पर काम नहीं हुआ है .......आप इस बिषय पर काम प्रारम्भ कर सकते हैं ?
Monday, February 16, 2009
प्रकाश
सूर्य के प्रकाश एवं चंद्रमा के प्रकाश में क्या अंतर है?
सूर्य का प्रकाश विज्ञानं का मुख्यबिषय बनचुकाहै लेकिन चंद्रमा का प्रकाश वैज्ञानिकों को
अभींतक क्यों नहीं आकर्षित कर पाया जबकि...........................
सूर्य का प्रकाश विज्ञानं का मुख्यबिषय बनचुकाहै लेकिन चंद्रमा का प्रकाश वैज्ञानिकों को
अभींतक क्यों नहीं आकर्षित कर पाया जबकि...........................
- पूर्ण मासी का चाद...........
- समुद्र के पानी को अपनें ओरखीचता है
- ज्यादा लोगो को पागल बनाताहैपागल होनें वाले लोगों में स्तियोंकी संख्या पुरुषों से ज्यादा होती है गीता सूत्र १५.१३ कहता है......चंद्रमा के प्रकाश में बनस्पतियां पुष्ट होती हैं और उनमें औषधि के गुड़आते हैं यहाँ दोनों प्रकाशों से मिलनें वाले फोटोंस[photons] के गुडों की वैज्ञानिक परख होनी चाहिए
- गीता के अंदर छिपे वैज्ञानिक राजों से परदा उठानें का कामहमारे वैज्ञानिकों का होना चाहिए
आइंस्टाइन और गीता
क्या आप जानते हैं किआइंस्टाइन को गीता प्रियतम था ?
आइंस्टाइन कहते हैं ........when i read bhagvat-geeta and reflect about how God created this
universe,everything else seems so superfluous। सन १९१७ में आइंस्टाइन का वह शोध-पत्र जिसमें
ब्रह्माण्ड -रहस्य छिपा हुआ है ,उसकी प्रेरणा गीता के श्लोक ८.१६ से ८.२० तक,२.२८,७.४ से ७.६ तक,१४.३,
१४.४,१३.५ एवं १३.६ से मिलीथी अब हम इन सूत्रों का सारांश देखते हैं
आनंद बुद्ध से पूछते हैं.......भंते! परमात्मा क्या है? बुद्ध कहते हैं........परिभाषा उसकी होती है जो होता है
परमात्मा तो होरहा है गीता श्लोक २.२८ भी यही बात भूतों के बर्तमान अस्तित्वके सम्बन्ध में कह रहा है
सब का जीवन एक यात्रा है जो अब्यक्त से प्रारम्भ होती है और अब्यक्त में समाप्त हो जाती है
गीता बताता है ......ब्रह्मलोक सहित सभींलोक पुनरावर्ती हैं अर्थात परमात्मा को छोड़ कर सभी सूचनाएं
टाइम-स्पेस के अधीन हैं भूतों कि रचना अपरा एवं पराप्रकृतियों के नौतत्वों तथा आत्मा-परमात्मा
से हैचार युगों कि अवधिसे हजार गुना अवधि में भुत होते हैं और इसके बाद इतनें ही समय तक पुरा
ब्रह्माण्ड रिक्त होता है जिसमें कुछ नहीं होता विज्ञानं का विकास -सिद्धांत में एक कोशिकीय जीवों
से बहु कोशिकीय जीवों के विकास कि बात हम देखते हैं लेकिन गीता का विकास-सिद्धांत गीता श्लोक
अद्याय ७,१३ तथा १४ के सूत्रों में छिपा है मनुष्यों के होनें कि बात मात्र चार युगों तक सीमित है फिर
चार युगों कि अवधि से ९९९ गुने अवधि जिसमें मनुष्य नहीं होता पर जीव होते हैं वह जीव किस प्रकार
के होते होंगे.....आप ईस रहस्य को गंभीरता से ले
आइंस्टाइन कहते हैं ........when i read bhagvat-geeta and reflect about how God created this
universe,everything else seems so superfluous। सन १९१७ में आइंस्टाइन का वह शोध-पत्र जिसमें
ब्रह्माण्ड -रहस्य छिपा हुआ है ,उसकी प्रेरणा गीता के श्लोक ८.१६ से ८.२० तक,२.२८,७.४ से ७.६ तक,१४.३,
१४.४,१३.५ एवं १३.६ से मिलीथी अब हम इन सूत्रों का सारांश देखते हैं
आनंद बुद्ध से पूछते हैं.......भंते! परमात्मा क्या है? बुद्ध कहते हैं........परिभाषा उसकी होती है जो होता है
परमात्मा तो होरहा है गीता श्लोक २.२८ भी यही बात भूतों के बर्तमान अस्तित्वके सम्बन्ध में कह रहा है
सब का जीवन एक यात्रा है जो अब्यक्त से प्रारम्भ होती है और अब्यक्त में समाप्त हो जाती है
गीता बताता है ......ब्रह्मलोक सहित सभींलोक पुनरावर्ती हैं अर्थात परमात्मा को छोड़ कर सभी सूचनाएं
टाइम-स्पेस के अधीन हैं भूतों कि रचना अपरा एवं पराप्रकृतियों के नौतत्वों तथा आत्मा-परमात्मा
से हैचार युगों कि अवधिसे हजार गुना अवधि में भुत होते हैं और इसके बाद इतनें ही समय तक पुरा
ब्रह्माण्ड रिक्त होता है जिसमें कुछ नहीं होता विज्ञानं का विकास -सिद्धांत में एक कोशिकीय जीवों
से बहु कोशिकीय जीवों के विकास कि बात हम देखते हैं लेकिन गीता का विकास-सिद्धांत गीता श्लोक
अद्याय ७,१३ तथा १४ के सूत्रों में छिपा है मनुष्यों के होनें कि बात मात्र चार युगों तक सीमित है फिर
चार युगों कि अवधि से ९९९ गुने अवधि जिसमें मनुष्य नहीं होता पर जीव होते हैं वह जीव किस प्रकार
के होते होंगे.....आप ईस रहस्य को गंभीरता से ले
Sunday, February 15, 2009
मन की गति
विज्ञानकहता है...........प्रकाश की गति परम-गति है {speed of light is ultimate speed-
science-says} लेकिन गीता कहता है किमन की रफ्तार परम है
गीता मन की पूरी गडितदेता है और कहता है..........जो मन को मापा वह जीवन को समझा
विचारों को पकड़ कर निर्विचार होना ही मन-योग है ------यह बात गीता श्लोक ६.२६
कहता है
गीता और विज्ञान दोनों मन को शरीर समाप्ति के बाद भी जीवित रहने की बात करते हैं ....
आप इस रहस्य को आगे चलकर गीता-मोतीमें देख सकेंगे
science-says} लेकिन गीता कहता है किमन की रफ्तार परम है
गीता मन की पूरी गडितदेता है और कहता है..........जो मन को मापा वह जीवन को समझा
विचारों को पकड़ कर निर्विचार होना ही मन-योग है ------यह बात गीता श्लोक ६.२६
कहता है
गीता और विज्ञान दोनों मन को शरीर समाप्ति के बाद भी जीवित रहने की बात करते हैं ....
आप इस रहस्य को आगे चलकर गीता-मोतीमें देख सकेंगे
Saturday, February 14, 2009
तंत्र एवं गीता
तंत्र चक्रों के माध्यमसे काम-उर्जा को रूपांतरित करके मन - बुद्धि में बहनें वाली उर्जा
को राम की ओर घुमादेताहै और गीता तीन गुडों से आजाद कराकर आत्मा को स्थूल
शरीर में आजाद करता है .......देखिये गीता-श्लोक १४.५
राग से वैराग , वैराग में ज्ञान तथा ज्ञान से आत्मा-परमात्मा तक की यात्रा होती है,गीता से
Friedrich nietzsche-19th century says--God is dead,we have killed him को
हम लोग पढ़े और इसपरम बात की प्रारंभिक कडी को अपनें सीने में लिख लिया तथा स्वयं
को परमात्मासे अलग करलिया गीता - श्लोक २.४७ की आधी बात कि हमें कर्म करना
चाहिए को पकड़ कर हम आशक्तिको भूल कर कर्म में पूरी तरह से आशक्त होगये
गीता-श्लोक २.४७,२.४८ सम भाव योग के परम सूत्र हैं
को राम की ओर घुमादेताहै और गीता तीन गुडों से आजाद कराकर आत्मा को स्थूल
शरीर में आजाद करता है .......देखिये गीता-श्लोक १४.५
राग से वैराग , वैराग में ज्ञान तथा ज्ञान से आत्मा-परमात्मा तक की यात्रा होती है,गीता से
Friedrich nietzsche-19th century says--God is dead,we have killed him को
हम लोग पढ़े और इसपरम बात की प्रारंभिक कडी को अपनें सीने में लिख लिया तथा स्वयं
को परमात्मासे अलग करलिया गीता - श्लोक २.४७ की आधी बात कि हमें कर्म करना
चाहिए को पकड़ कर हम आशक्तिको भूल कर कर्म में पूरी तरह से आशक्त होगये
गीता-श्लोक २.४७,२.४८ सम भाव योग के परम सूत्र हैं
स्व को जानो
नई बस्तु को देखनें से हमारे अंदर चार प्रश्न उठते हैं
१- यह क्या है ?,२- कहाँ से आई है ? ३- कौन लाया है ४- क्यों लाया है ?
क्या हम स्वयंके सम्बन्ध में इनप्रश्नों को स्वयं से पूछते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर आप को गीता-मोतीके माध्यमसे मिलेगा
सिगमंड फ्राएड मनुष्य के सभींगतिबिधियों के केन्द्र के रूप में काम को देखते हैं जबकि
गीता-अध्याय ३,५,७,तथा १६ के १३ श्लोकों में काम का पूरा बिज्ञान भरा हुआ है जो सिगमंड
की बातोंसे परे की बातें बताता है
१- यह क्या है ?,२- कहाँ से आई है ? ३- कौन लाया है ४- क्यों लाया है ?
क्या हम स्वयंके सम्बन्ध में इनप्रश्नों को स्वयं से पूछते हैं?
इस प्रश्न का उत्तर आप को गीता-मोतीके माध्यमसे मिलेगा
सिगमंड फ्राएड मनुष्य के सभींगतिबिधियों के केन्द्र के रूप में काम को देखते हैं जबकि
गीता-अध्याय ३,५,७,तथा १६ के १३ श्लोकों में काम का पूरा बिज्ञान भरा हुआ है जो सिगमंड
की बातोंसे परे की बातें बताता है
Friday, February 13, 2009
बिषय से ब्रह्म तक
बिषय,इंद्रियां ,मन,बुद्धि,प्रज्ञा.चेतना,जीवात्मा एवं परमात्मा इन आठ तत्तों में होशमयहोना ही
कर्मयोग तथा ज्ञानयोग का आधारहै
इंद्रियों का जोड़.......मन है
इंद्रियों एवं बुद्धि के मध्य मन है जो........एक तरफ़ बुद्धि से तथा बाहर बिषयों से इंद्रियों के
माध्यम से मिला होता है बुद्धि प्रज्ञा से ,प्रज्ञा चेतना से और चेतना आत्मा से जुडी होती है
तथा ब्रह्म सब का नाभि -केन्द्र है
जैसे ऊपर से टपकती बूँदें धरती को स्पर्श करके मैलीहो जाती हैं ठीक उसी तरह चेतना की
तरंगें कापते मन को छूकर बिकरयुक्त हो जाती हैं
संसार और ब्रह्म
राग से संसार और बैराग से ब्रह्म मिलता है
आसक्ति संसार से और बिरक्ति ब्रह्म से जोड़ती है
अंहकार संसार में उपर उठाताहै और प्रीतिपरमात्मा में डुबोती है
चाह संसार से और भावातीत ब्रह्म से जोड़ता है
संदेह संसार में फैलाताहै और श्रद्धा परमात्मा में तैराती है
संसार ब्रह्म से ब्रह्म में है
आसक्ति संसार से और बिरक्ति ब्रह्म से जोड़ती है
अंहकार संसार में उपर उठाताहै और प्रीतिपरमात्मा में डुबोती है
चाह संसार से और भावातीत ब्रह्म से जोड़ता है
संदेह संसार में फैलाताहै और श्रद्धा परमात्मा में तैराती है
संसार ब्रह्म से ब्रह्म में है
संसार और ब्रह्म
राग से संसार और बैराग से ब्रह्म का पता चलता है
आसक्ति से संसार और बिरक्ति से ब्रह्म जानाजाता है
अंहकार से संसार और प्रीति से परमात्मा मिलता है
चाह से संसार सम भावसे परमात्मा की खुशबू मिलतीहै
संदेह में संसार और प्रीति में परमात्मा दिखता है
गीता-मर्म
गीता -मर्म के माद्यम से निम्न बातों को देखनें से यह सम्भव हो सकता हैकि इंद्रियों से बुद्धि तक की ऊर्जा का रूपांतरण होजाए और बुद्धि का आखिरी बंद दरवाजा खुले जिसके माद्यम से वह दिखे जिसकी हमारी जनम-जनम से चाह है यहाँ आप निम्न बातों को देखें ...........
१- जब आप कोई चीज देखते हैं तब निम्न प्रश्न अंदर उठते हैं............
क-यह क्या है?
ख-कहाँ से आई है
ग-कौन लाया है
घ-क्यों लाया है
लेकिन क्या इन प्रश्नों को आपनें स्वयं से पूछा है
की आप कौन हैं , किससे हैं, क्यों हैं ?
इन प्रश्नों का उत्तर का नाम ही गीता है ।
WHO AM I ? The awareness of I is meditation.
१- जब आप कोई चीज देखते हैं तब निम्न प्रश्न अंदर उठते हैं............
क-यह क्या है?
ख-कहाँ से आई है
ग-कौन लाया है
घ-क्यों लाया है
लेकिन क्या इन प्रश्नों को आपनें स्वयं से पूछा है
की आप कौन हैं , किससे हैं, क्यों हैं ?
इन प्रश्नों का उत्तर का नाम ही गीता है ।
WHO AM I ? The awareness of I is meditation.
Wednesday, February 11, 2009
गीता का ब्रह्म
देखिये गीता-श्लोक २.४२,२.४३,२.४४ तथा १२.३,१२.४
गीता कह रहा है.............
ब्रह्म को समझनें के लिए बुद्धि से आगे की यात्रा पैर पहुंचनाजरुरी है और राग एवं कामको एक साथ एक
बुद्धि में नहीं रखा जा सकता
prof. albert einstein says...........
A point in nature exists where all physical theories breakdown and he further says......
there are two types of knowledge- one is dead knowledge available in books and
other is aliveavailable in consceousness।
क्या आइंस्टाइन की बात गीता के बचनों से भिन्न है?......क्रमशः
गीता कह रहा है.............
ब्रह्म को समझनें के लिए बुद्धि से आगे की यात्रा पैर पहुंचनाजरुरी है और राग एवं कामको एक साथ एक
बुद्धि में नहीं रखा जा सकता
prof. albert einstein says...........
A point in nature exists where all physical theories breakdown and he further says......
there are two types of knowledge- one is dead knowledge available in books and
other is aliveavailable in consceousness।
क्या आइंस्टाइन की बात गीता के बचनों से भिन्न है?......क्रमशः
गीता-रतन से क्या मिलेगा?
गीता-रतन आप को कुछ देगा नहीं आप से छीन लेगा वह सब जो आप छोड़ना नहीं चाहते , आप तैयार हैं ?
ब्रह्म की अनुभूति तब होती है जब इंद्रियों से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा रूपांतरित हो जाती है और यह काम
गीता-रतन करता है गीता-रतन की डुबकीलेने से ................
न तन बचताहै न मन रहता है ...........
चेतना के फैलाव में ब्रह्म की अनुभूति होती है .........
जिसकी तलाश मनुष्य योनी में हमें ला रखी है ......
हमारे समझ की सीमा मन-बुद्धि तक सीमित है और इसके परे की समझ समाधि में होती है
क्रमशः ............
ब्रह्म की अनुभूति तब होती है जब इंद्रियों से बुद्धि तक बहनें वाली ऊर्जा रूपांतरित हो जाती है और यह काम
गीता-रतन करता है गीता-रतन की डुबकीलेने से ................
न तन बचताहै न मन रहता है ...........
चेतना के फैलाव में ब्रह्म की अनुभूति होती है .........
जिसकी तलाश मनुष्य योनी में हमें ला रखी है ......
हमारे समझ की सीमा मन-बुद्धि तक सीमित है और इसके परे की समझ समाधि में होती है
क्रमशः ............
आइंस्टाइन क्या थे?
आइंस्टाइन एक वैज्ञानिक थे या एक ऋषि? आज यह प्रश्न वैज्ञानिकों के दिमाकमें उठ रहा है,आप भी इस बिषय पर कुछ सोच सकते हैं।
* आइंस्टाइन को कैसे पता चला की हमारे गलेक्सी के नाभि-केन्द्र में एक विशाल ब्लैक -होल है जबकि उस समय तक विज्ञानं के पास इतनें साधन उपलब्ध नहीं थे।
* उन्हें कैसे पता चला कि बुद्ध -ग्रह की लम्बी अक्सिस दस हजार साल में एक अंश सूर्य की ओरझुक जाती है।
* उनको कैसे पता चला कि टाइम-स्पेस फ्रेम सीधा नहीं है।
* वे कैसे जान पाए कि भारी ग्रहों के पास से गुजरनें पर सूर्य कि किरण उस ग्रह की ओर झुक जाती है।
* वे कैसे जानें कि ग्राविटी और प्रकाश की गतियाँ समान हैं।
* जबतक यह भी पता न था कि एटम में एलेक्ट्रोनके अलावा और क्या-क्या हैं उस समय उन्होंने मॉस-एनर्जी
समीकरण कैसे दिया।
बहुत सारे प्रशन हैं जो आप को विवश कर देंगे यह सोचनें के लिए कि...........
आइंस्टाइन क्या थे।
* आइंस्टाइन को कैसे पता चला की हमारे गलेक्सी के नाभि-केन्द्र में एक विशाल ब्लैक -होल है जबकि उस समय तक विज्ञानं के पास इतनें साधन उपलब्ध नहीं थे।
* उन्हें कैसे पता चला कि बुद्ध -ग्रह की लम्बी अक्सिस दस हजार साल में एक अंश सूर्य की ओरझुक जाती है।
* उनको कैसे पता चला कि टाइम-स्पेस फ्रेम सीधा नहीं है।
* वे कैसे जान पाए कि भारी ग्रहों के पास से गुजरनें पर सूर्य कि किरण उस ग्रह की ओर झुक जाती है।
* वे कैसे जानें कि ग्राविटी और प्रकाश की गतियाँ समान हैं।
* जबतक यह भी पता न था कि एटम में एलेक्ट्रोनके अलावा और क्या-क्या हैं उस समय उन्होंने मॉस-एनर्जी
समीकरण कैसे दिया।
बहुत सारे प्रशन हैं जो आप को विवश कर देंगे यह सोचनें के लिए कि...........
आइंस्टाइन क्या थे।
Tuesday, February 10, 2009
गीता-रतन
गीता-रतन एक मध्यम है जिस से आप परम श्री कृष्ण से जुड्तेहै आप गीता के बारे में क्या सोच रखते हैं यह
आप जानते होंगे पर गीता-रतन में उतरनें से पहले आप को निम्न बातों पर सोचना चाहिए .........................
१- गीता क्या है ?
२- गीता-रतन क्या है?
१- गीता क्या है?
धर्म - क्षेत्र कुरुक्षेत्र में कौरव एवं पांडवों की सेंनाओं के बीच तैयार हुआ कर्म
योग तथा ज्ञान योग का बिज्ञान का नाम गीताहै गीता का प्रारम्भ धृत रास्त्र से होता है
और इसका अंत अनंत में है जो ब्यक्त नहीं किया जा सकता........क्रमशः
आप जानते होंगे पर गीता-रतन में उतरनें से पहले आप को निम्न बातों पर सोचना चाहिए .........................
१- गीता क्या है ?
२- गीता-रतन क्या है?
१- गीता क्या है?
धर्म - क्षेत्र कुरुक्षेत्र में कौरव एवं पांडवों की सेंनाओं के बीच तैयार हुआ कर्म
योग तथा ज्ञान योग का बिज्ञान का नाम गीताहै गीता का प्रारम्भ धृत रास्त्र से होता है
और इसका अंत अनंत में है जो ब्यक्त नहीं किया जा सकता........क्रमशः
Monday, February 9, 2009
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