गीता में सूत्र १८.६१ तक ऐसा नहीं दिखता किअर्जुन के उपर परम श्री कृष्ण के ज्ञान एवं कर्म योग का कोई असर पड़ पाया है लेकिन सूत्र १८.73के माध्यम से अर्जुन स्वयं को कैसे समर्पित कर पाए हैं?गीता के इस रहस्य को आप गीता सूत्र १८.६२ से १८.७२ तक में खोजें
- सूत्र १८.६२ में परम अर्जुन को परमात्मा की शरण में जाने की बात पहली बार कहते हैं ,इसके पहले स्वयं कोही परमात्मा कहते रहे हैं
- अर्जुन मोह ग्रसित हैं और ऐसा ब्यक्ति भयभीत होनें के कारणसहारा चाहता हैअभींतक अर्जुनको परम का सहारा था लेकिन यहाँ उनका सहारा कुछ कमजोर होता दीखता हैमोह में ऋणात्मक
- अंहकार होता है जिसके कारण से ब्यक्ति स्वयं को कमजोर समझता है और अप्रत्यक्ष रूप में सहायता चाहता है
- गीता सूत्र १८.६३ में परम कहते हैं......मुझे जो बताना था ,बता दिया है,अब तूं जो चाहे वैसा कर
- गीता-सूत्र १८.६६ में पुनः कहते हैं.....तूं सब धर्मों को छोड़ कर मेरे शरण में आ जा मैं तुझे सब पापों से मुक्त कर्दूंगा
- गीता सूत्र १८.६७ में परम कहते हैं.....नास्तिक ब्यक्ति के सामनें गीता की चर्चा नहींकरनी चाहिए
- गीता सूत्र १८.६८ से १८.७१ तक में परम पुनः सांत्वना दे रहे हैं क्योंकि वे अर्जुन में बदलाव देख रहे होंगे
- अब जब परम को पूरा यकीन हो जाता है तब सूत्र १८.७२ में पूछते हैं .....क्या तूनें गीता सुना क्या तेरा अज्ञान जनित मोह समाप्त हुआ?
- अब अर्जुन को सूत्र - १८.७३ में यह पता चल जाता है........मोह,संशय और स्मृति में क्या सम्बन्ध होता है
- गीता-सूत्र १८.६२ से १८.७१ तक में परम अर्जुन पर एक मनो वैज्ञानिक दबाव बनते हैं जिसका परिणाम भी अर्जुन पर सही दिखता है
- परम श्री कृष्ण अर्जुन के साथ तन से हैं और मन कहीं और होनें से उनके अंदर का निराकार ब्रह्म अर्जुन को नहीं दिख पा रहा जबकि संजय तन से दूर हैं पर मन से समीप होनें के कारण श्री कृष्ण में निराकार ब्रह्म को देख रहेहैं
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