मन्दिर हम रोजाना जाते हैं --क्यों? कुछ तो कारन होगा--कुछ देर इस बात पर सोचें आप को शान्ति मिलेगी और हो सकता है आप की सोच आप को वह देदे जो आपके घर कोही मन्दिर बनादे। मन्दिर पहुचनेंवालों के साथ एक लम्बी लिस्ट होती है--मांगों की-जिस को हम बड़ी चालाकी से छिपाके ले जाते हैं। मूरत के सामनें हम खड़ा होकर अंदर ही अंदर बोलते ही जाते हैं, मांगते ही जाते हैं कभी सोचते भी नहीं की क्या मूरत भी हमसे कुछ कह रही है?जी हाँ मूरत भी कुछ कहती है,क्या आप सुनना चाहते हैं? तो सुनिए..............
बावले! तूं क्या कर रहा है? तूं रोजाना आता है और पुनः वापस चला जाता है, यह तेरा आवागमन कब तक चलता
रहेगा? क्या तू नहीं समझता की मैं तेरे अन्तः करन की बात को समझती हूँ? कामनापूर्ति से जो आनंद मिलाता है , वह अल्पावधि का होता है, वासना के बिषय बदलते रहनें से क्या होगा? वासना के मूल को ही क्यों नहीं समझ लेते? तूं मेरी तरह क्यों नहीं बन जाता? तूं मुझको अच्छी तरह से देख--मेरे पास वह सब है जो तेरे पास है जैसे तन, इद्रियाँ, पर क्या मैं कभीं इनका प्रयोग करती हूँ? यदि तूं इस असीमित भोग संसार में परमानन्द का मजा लेना चाहता है तो कछुए की तरह अपनें इन्द्रियों को नियंत्रित कर लो और तब तुझको पता चले गा की संसार क्या है? माया क्या है? और तूं क्यों परेसान है? तूं इन्द्रीओं के साथ इन्द्रिय रहित होनें का अनुभव कर, मन के साथ अमन की स्थिति को समझ, कामना के साथ सम-भाव को समझ, शोर से भरे इस संसार में परम शुन्यता को पकड़, तब तूं स्वयं चलता-फिरता मन्दिर हो जाएगा और इस मन्दिर की द्रष्टा मूरत--जीवात्मा को जान कर
परममय हो जाए गा ।
==========ॐ=========
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very well said, and i could understand this post well. keep it up, dad - Alok
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