मन्दिर अंक तीन में हमनें देखा की साकार मन्दिर निराकार मन्दिर के द्वार हैं, अब कुछ और बातोंको देखते हैं
गीता-सन्दर्भ - श्लोक
7.16 6.37 13.2 9.25 9.26 12.5--12.7
गीता-सूत्र ७.१६ कहता है......
गीता सूत्र - ६.३७ के माध्यमसे अर्जुन का सातवाँ प्रश्न है---- श्रदावानएवं असंयमी योगी का मन जब विचलित हो जाता है,उसका योग खंडित हो जाता है तब उसकी क्या गति होती है? इस सन्दर्भ में श्लोक ७.१६ परम द्वारा कहा गया है। यहाँ आप योग शब्द का अर्थ परमात्मा से जुडनें से
लगायें--गीता में योग शब्द का अर्थ है--परमात्मा से जुडनें का माध्यम। सूत्र ७.१६ कहता है-------
परम कहते हैं......चार प्रकार के लोग हैं जो परमात्मा से जुड़े दिखतेहैं------एक श्रेणी उनकी है जो भोग प्राप्ति
के लिए जुड़ते हैं,दूसरे वे हैं जो मोह एवं भय के कारन जुड़ते हैं, तीसरे वे हैं जो बुद्धि केंद्रित लोग हैं जो परमात्मा को
अपने बुद्धि में कैद करना चाहते हैं और चौथी श्रेणी उनकी है जो ज्ञान प्राप्ति चाहते हैं। गीता-सूत्र १३.२ ज्ञान की
परिभाषा देता है-----ज्ञान वह जिससे क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ का पता चले। क्षेत्र में विज्ञानं एवं मनो विज्ञानं तथा वह सब आता है जिसको हम समझ सकते है, जिनको मन-बुद्धि पकड़ पानें में समर्थ हैं लेकिन क्षेत्रज्ञ क्षेत्र का नुक्लिअस है
जिस से क्षेत्र का अस्तित्व है। क्षेत्र विकार सहित है और क्षेत्रज्ञ विकार रहित है जो जीवात्मा के नम से जाना जाता
है तथा जिसको परमात्मा का अंश समझा जाता है।
गीता-सूत्र ९.२५
यहाँ पूजकों की तीन श्रेणियां बताई गई हैं---देव-पूजक, पित्र-पूजक, भूत-पूजक। आगे गीता-सूत्र ९.२६ कहता है की इनसे परे भी एक श्रेणी होती है को निष्काम परमात्मा में लींन रहते है।
भक्ति में तल्लीन दिखने वालों की दो श्रेणियां हैं--एक वे लोग हैं जो कामना- पूर्ति के लिए मन्दिर जाते हैं और दूसरी श्रेणी उनकी है जो निष्काम परमात्मा का स्मरण करते रहते हैं।यहाँ पहली श्रेणी के लोग मन्दिर को
अपना घर समझते हैं और दूसरे लोग अपनें घर को भी मन्दिर समझते है।गीता सूत्र १२.५ कहता है की निराकार उपासना अति कठिन उपासना है अतः साकार से निराकार में पहुचना सुलभ है।निराकार में पहुँचा भक्त परमात्मा
में समा गया होता है उसके लिए पूरा ब्रह्माण्ड ही परमात्मा होता है, वह परमात्मा को खोजता नही, खोजेगा भी कैसे, वह जहाँ भी होता है उसके चारों तरफ़ परमात्मा की उर्जा प्रवाहित होती रहती है।
मन्दिर में जब तक मन की आब्रित्तियां रूकती नहीं तब तक वह आप के लिए मन्दिर नहीं हो सकता।
जहाँ आप का अंहकार प्रीती में नहीं बदलता वह मन्दिर आप के लिए परमात्मा का द्वार नहीं बन सकता।
जहाँ आप लोगों से अपनें तन-मन से घीरे होते हैं वह आप के लिए मन्दिर नही हो सकता।
मन्दिर उस तह खानें का द्वार है जिसमें प्रवेश करता पुनः भोग-संसार में नहीं दिखता।
========ॐ========
Thursday, April 9, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment