Friday, April 10, 2009

मन्दिर--५

मनुष्य गुलाब का पेड़ है और मन्दिर एक नर्सरी है जहाँ इस पेड़ पर साकार-भक्ति की कलियाँ आती हैं।
क्या आप कभी गुलाब के नर्सरी की सैर किया है? यदि नहीं तो करना।गुलाब की कलियों को गौर से देखना आप को
प्रकृत का वह राज मिल सकता है जिसकी आप को तलाश है। कलीचारोंतरफ़ से काँटों से घिरी होती है, अपनें में
प्रकृत को बंद करके रखती है और वह इधर - उधर नहीं देखती, सीधे ऊपर की ऑरउसका रुख होता है,उसे किसी की
परवाह नहीं होती ।
पेड़ पर कली प्रकृत से प्रकृत में होती है और एक दिन फूल बनकर प्रकृत में फ़ैल जाती है। कली कोबंधन मुक्त होना
ही पड़ता है तब उसे प्रकृत अपनाती है। मन्दिर में जब साकार भक्ति की कली आती है तब विरक्ति भरती है। विरक्ति का अर्थ है--काम, कामना , अंहकार, क्रोध , लोभ ,और मोह के बंधन से मुक्त होना। विरक्ति से मनुष्य
प्रकृत से प्रकृत में अपनें को पाताहै। विरक्ति का आर्थ है बैराग, वैराग से ज्ञान मिलता है जो यह बताता है ---
तुम कौन हो? प्रकृत क्या है? और प्रकृत तथा तुम्हारा सम्बन्ध क्या है?
क्या कभी आप कली को तोडा है? कली को तोड़नें में अधिक शक्ति की जरुरत पड़ती है जब की फूल को
आसानी से तोडा जा सकता है। कली बंधन में होती है और फूल बंधन मुक्त होता है । मन्दिर उत्तम है लेकिन यहाँ
संसार के बंधनों से मुक्त शादियों बाद कोई हो पाता है---मन्दिर की साकार भक्ति यदि वैराग उत्पन्न करनें में
कामयाब होती है तब परा-भक्ति का द्वार स्वतः खुल जाता है जो बंधन में बंद कली को बंधन-मुक्त फूल में बदल
देती है। परा-भक्त फूल की तरह परम-खुशबू को फैलता रहता है जो उसे मन्दिर के माध्यम से मिली होती है।
साकार-भक्त कभीं तृत्प नहीं हो पाता और परा-भक्त कभीं अतृप्त नहीं हो ता । साकार भक्त संसार में डूबा
होता है कभीं-कभीं उसकी गर्दन उपर संसार से परे के आयाम कोभी स्पर्श कर लेती है और तब उसको भनक
मिलाती है उसकी---जिससे एवं जिसमें संसार है। आप मन्दिर तो जाते ही हैं---कभीं मूरत को गौर से देखना।
क्या कभीं मुस्कुराती मूरत आप को मिली है? शायद नहीं मिली होगी --मिलेगी भी कैसे मिल नहीं सकती क्यों?
कारण है और गहरा कारन है। साकार-भक्ति जब पकती है तब समभाव आता है , समभाव से भावातीत की यात्रा
प्रारंभ होती है जो अब्यक्त होती है। मन्दिर की मूरत समभाव की द्योतक है जो मन्दिर-साधना का आखिरी सीमा
है। मन्दिर की मूरत कहती है---मूरख भाग लिया ....बहुत , अब और कितना भागे गा, पा लिया सब कुछ और
क्या पाना है ....अब तो तूं भी मेरे जैसा बन जा और तब तूं वह पा जायेगा जो सब के होनें का श्रोत है।
गीता भोग से योग, काम से राम, राग से वैराग्य भाव से भावातीत तथा गुन से निर्गुण बना कर आजाद
करता है। गीता-सूत्र 14.5 कहता है---तीन गुन आत्मा को स्थूल शरीर में रोककर रखते हैं अर्थात निर्गुणी का
आत्मा स्थूल शरीर में आजाद रहता है जो किसी भी समय परम-आत्मा में मिल सकता है ---इस बात को
परमहंश राम कृष्ण कहते हैं---मायामुक्त योगी तीन सप्ताह से अधिक समय तक स्थूल शरीर के साथ नहीं रह
सकता।
मन्दिर भाव-भावातीत के मध्य समभाव उत्पन्न करनें का पड़ाव हैं।
=======ॐ=======

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