जब जिंदगी तमसागर में डूब रही हो , दुख के घने बादलों से दर्द की बुँदे टपक रही हों, जिंदगी का आखिरी छोर दिख
रहा हो,अपनें जब पराये से दिखते हों, तब अन्तः करण में एक अब्यक्त भावकी उर्जा शरीर में भरनें लगती है जो हमें वह देती है जिसको ब्यक्त नही किया जा सकता। इस सम्बन्ध में आप देब फुल्टन के अनुभव को देखे----------
सन १९८९ फरवरी माह की बात है,मेरी मां जो ५५ वर्ष की थी ब्रेन-टुमरसे जूझ रही थी,उनको मशीन से भोजन एवं श्वाशदी जा रही थी, वे पूर्ण रूपसे कोमा में थी। एक दिनकी बात है, मै बच्चे को जन्म देनें के लिए हस्पताल जा रही थी और घर में डोक्टोर्समां को मशीन से अलग कर रहे थे क्योंकि अब उन्हें कोई उम्मीद न थी।
मांका कई बार आपरेसन पहले हो चुका था पर परिणाम निराशापूर्ण ही था। मां घर में आखिरी स्वाश भर रही थी और मैं प्रशव- दर्द में तड़प रही थी। मैनें बच्चे को जन्म दिया और बोली---मां को टेलीफोन करो। मां को टेलीफोन किया गया । उधर घर में मां उठकर बैठ गयी थी और बोल रही थी की मेरी बेटी नें बच्चे को जन्म दिया है। मां से मैं बात की मां बोली---हाँ बेटी मुझे पता है , मैं भी तेरे फ़ोन का इंतजार कर रही थी। पहले तो मुझे
यकीं न हुआ पर मां जो कई सालों से चुप थी, उनकी आवाज मुझे ऎसी लगी जैसे आकाश-वाणी हो रही हो। मैं घर
आयी मां मेरे बेटे को अपनें गोदी में लिया और उस से बातें करनें लगी। इस घटना से तो सप्ताह बाद मेरी मां मुझे
बिना बताये शरीर छोड़ दिया।
एक मां किस मध्यम से अपनें बच्चे से जुड़ी होती है---आप इस पर सोचें।
======ॐ=======
Thursday, April 2, 2009
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