Tuesday, April 14, 2009

गीता-मकरंद

आप गीता -मकरंद में आमंत्रित है------
१- करता भावअंहकार की छाया है गीता-३.२७
२- गुणों के भावों से सम्मोहित ब्यक्ति गुनातीत परमात्मा से
दूर रहता है गीता-७.१२,७.१३
३- कर्म करता गुण हैं गीता- २.४५, ३.५, ३.२७
४- गुणों को करता समझनें वाला द्रष्टा- साक्षी होता है गीता- १४.१९, १४.२३
और आगे देखिये................
राग से वैराग तक की पैदल यात्रा का नाम कर्म-योग है
और वैराग में ज्ञान प्राप्ति से आत्मा-परमात्मा की उडानका नाम ज्ञान-योग है।

ज्ञान से वासना रहित निर्विकार प्यार की अनुभूति मिलती है।

निर्विकार प्यार में परमात्मा बसता है।

चाह रहित प्यार को निर्विकार प्यार कहते हैं ।

निर्विकार प्यार का केन्द्र ह्रदय है

वासना का स्थान भ्रमित मन तथा अज्ञान से भरी बुद्धि होती है ।
और आगे देखिये.........
अमेरिका के वैज्ञानिक अपनें खोज के आधार पर कहते हैं------
निर्विकार प्यार में मस्तिष्क के छः प्रकोष्ट सक्रीय रहते हैं और वासना में मात्र एक प्रकोष्ट सक्रीय रहता है।
वासना से हम सम्मोहित इस लिए होते हैं की हम तृप्त हो जाए लेकिन क्षणिक तृप्ति और अधिक अतृप्ति पैदा करदेती है । अब आप समझ सकते हैं की योगी क्यों तृप्त रहता है और भोगी कभीं तृप्त हो नहींपाता ।
योग अर्थात परमात्मा के प्रीती में डूबा ब्यक्ति सदैव खुश रहता है ।

=======ॐ========

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