Tuesday, May 25, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 15
कर्म गुणों के कारण होते हैं
गुण एवं कर्म के सम्बन्ध में आप गीता के निम्न सूत्रों को देखें ------
2.45, 3.5, 3.27, 3.33, 5.22, 18.38, 18.11, 18.48, 18.49, 18.50, 18.54 18.55
गीता के बारह सूत्र कहते हैं ........
गुण कर्म करता हैं और गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं वे भोग कर्म होते हैं , भोग कर्म करनें में सुख मिलताहैं
लेकीन उस सुख में दुःख छिपा होता है , आसक्ति रहित कर्म योग कर्म होते हैं जिनकी सिद्धि ज्ञान के माध्यमसे
परा भक्ति का द्वार खोलती है । भोग कर्मों में गुण तत्वों की पकड़ से मुक्त होना ही कर्म - योग है ।
आप यदि कर्म - योग में कदम रखना चाहते हैं तो आप को ऊपर बताये गए श्लोकों से मैत्री स्थापित करनी होगी ।
गीता मूलतः कर्म के माध्यम से प्रभु से जोडनें का विज्ञान देता है । अर्जुन को युद्ध के माध्यम से स्थित प्रज्ञ बनानें
का प्रयाश श्री कृष्ण कर रहे हैं और गीता को अपना कर आप भी स्थिर प्रज्ञता का मजा ले सकते हैं ।
====ॐ ======
गीत गुण रहस्य भाग - 14
गीता के पांच सूत्र
सूत्र - 2.28 ...... सभी प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मृत्यु के साथ पुनः अप्रकट हो जाते हैं , वर्तमान का
छोटा सा भाग जीवन का जो ब्यक्त है जब वह भी अप्रकट हो जाता है फिर लोग क्यों दुखी होते हैं ?
अब्यक्तादीनि भूतानि ब्यक्तमध्यानि भारत ।
अब्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥ 2।28 ॥
सूत्र 18.40 ..... पुरे ब्रह्माण्ड में कोई ऐसा सत नहीं जो गुणों से अछूता हो ।
सूत्र 7.12 - 7.15 तक ...... तीन गुण प्रभु से प्रभु में हैं लेकीन प्रभु गुनातीत है । तीन गुणों का माध्यम है - माया
जिससे यह संसार है और जीव हैं । माया मनुष्य को प्रभु से दूर रखती है और माया मुक्त योगी परम धाम को प्राप्त
करता है ।
गीता के पांच सूत्र साधना की बुनियाद हैं , यदि कोई इन सूत्रों को अपना कर साधना में उतरे तो वह एक दिन गुनातीत
योगी अवश्य बनेगा । श्री कृष्ण चाहते हैं वह जो असंभव है जो आज तक कभी घटित नहीं हुआ और न ही होगा ।
श्री कृष्ण चाहते हैं - अर्जुन युद्ध करे लेकीन गुनातीत स्थिति में , यह श्री कृष्ण का प्रयोग बहुत कठिन है , कोई
गुनातीत जो कामना क्रोध , लोभ , मोह एव अहंकार रहित होता है युद्ध क्यों करेगा ?
श्री कृष्णा का गीता हर कदम पर एक नयी सोच पैदा करता है , जो उसमें उलझ गया वह उलझ गया और जो
चलता रहा वह पहुँच जाता है उस पार ।
महाभारत युद्ध है क्या ?
एक परिवार के लोग आपस में लड़ रहे हैं , भाई भाई से लड़ रहा है , चाचे - ताऊ आपस में लड़ रहे हैं , गुरु
शिष्य आपस में लड़ रहे हैं आखिर क्यों लड़ रहे हैं , केवल अहंकार कारण है और कोई कारण नहीं दिखता ।
महा भारत युद्ध से भारत को क्या मिला , यह एक गंभीर बात है , भारत को इस युद्ध से कुछ नहीं मिला
लेकीन भारत की कमर जरुर टूट गयी ; देश के महान योधा , युद्ध विज्ञान के महान वैज्ञानिक , महान
चिकित्सक , बुद्धि जीवी सभी लोग मारे गए देश का सारा विकास समाप्त सा हो गया लेकीन मिला क्या ?
===== ॐ ======
Sunday, May 23, 2010
गीता गुण रहस्य - भाग - 13
गुण एवं मनुष्य सम्बन्ध
यहाँ हम गीता के तीन श्लोकों को देखेंगे जो इस प्रकार से हैं .........
गीता सूत्र - 13.19 ...... प्रकृति एवं पुरुष अज हैं । प्रकृति से तीन गुणों के तत्त्व हैं जैसे राग , काम , कामना , क्रोध लोभ , मोह , भय एवं आलस्य आदि ।
गीता सूत्र - 14.5 ...... तीन गुण आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं ।
गीता सूत्र - 14.10 .... मनुष्य के अन्दर तीन गुणों का हर समय बदलते रहनें वाला एक
समीकरण होता है जो
मनुष्य के स्वभाव को बनाता है ।
अब आप गीता के ऊपर दिए गए तीन सूत्रों के आधार पर मनुष्य एवं गुणों से सबंध को समझ सकते हैं ।
गीता एक तरफ कहता है - तीन गुण आत्मा को देह में रोक कर रखते हैं और दूसरी ओर गुनातीत बनाना चाहता है ।
गीता कहता है - तीनगुन गुनातीत प्रभु से हैं और प्रभु में ये गुण नहीं हैं और इनसे प्रभु प्रभावित भी नही होता ।
गीता कहता है - भोग तत्वों की उपज तीन गुणों से है और भोग तत्वों के प्रति होश प्रभु में पहुंचाता है ।
मनुष्य एवं प्रभु के मध्य एक झीना पर्दा है जिसको संसार कहते हैं जो भोग तत्वों से परिपूर्ण है ।
संसार के प्रति होश बैराग्य से मिलता है और बैराग्य तब मिलता है जब प्रकृति - पुरुष , क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का
बोध होता है ।
प्रभु मय होनें के लिए .........
[क] स्वयं को जानना होता है
[ख] संसार को जानना होता है
[ग] भोग तत्वों को समझना होता है
प्रभु का मार्ग इतना कठिन भी नहीं है और -----
इतना आसान भी नहीं है ।
गीता के आधार पर प्रभु की ओर चलनें वाला पहले बैरागी बनाता है
और बैरागी स्वतः प्रभु में होता ही है ।
===== ॐ ======
Saturday, May 22, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 12
मनुष्य , गुण एवं अहंकार
यहाँ मनुष्य का जीवन गुण एवं अहंकार पर किसतरह से आधारित है , को समझनें के लिए गीता के निम्न सूत्रों को अपनाना होगा -----
[क] गीता सूत्र - 6.27 ..... राजस गुण मनुष्य को प्रभु की ओर चलनें नहीं देता ।
[ख] गीता सूत्र - 3.27 ..... गुण कर्म करता हैं , मनुष्य कर्म करता नहीं है लेकीन करता भाग अहंकार से आता है ।
[ग] गीता सूत्र - 2.52 .... मोह में बैराग्य प्राप्त करना असंभव है
[घ] गीता सूत्र - 7.20 , 7.27 , 18.72 - 18. 73
राजस एवं तामस गुण अज्ञान की जननी हैं ।
अब आप कुछ सोंचे .......
क्या हमारा कोई काम बिना ------
** कामना
** क्रोध
** लोभ
** मोह
** अहंकार के होता है
जी नहीं होता । गीता कहता है --- ऐसे कर्मों से तुम प्रभु के चरणों में नहीं पहुँच सकते । ऐसे कर्म नरक की ओर ले जाते हैं ।
गीता में कोई अपना और कोई पराया नहीं होता , गीता मात्र दो श्रेणियों में मनुष्य को बाटता है - एक वह लोग हैं जो
बिना किसी चाह के प्रभु से जुड़े हैं और दूसरी श्रेणी उनकी है जो प्रभु से भी जब जुड़ते हैं तब भोग - प्राप्ति कारण
होता है । गीता योगी भोग में निर्विकार की खोज करता है और भोगी निर्विकार में भी
विकारमय तत्वों को खोजता है ।
योगी के लिए भोग एक योग का माध्यम है और भोगी के लिए प्रभु भी भोग का
एक श्रोत है ।
==== ॐ =====
Friday, May 21, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 11
अहंकार
अहंकार और क्रोध का सम्बन्ध क्या है ? आप इस सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं को
देख सकते हैं ।
हमारे ऋषि लोग बात बात पर श्राप देते हैं , अपनें नाक पर मक्खी नहीं
बैठनें देते , आखिर कार कारण क्या है ?
त्रिकाल दर्शी ऋषि लोग , क्यों इतनें क्रोधी थे ? श्री राम एवं श्री कृष्ण तक को
ये ऋषि लोग श्राप देनें में कंजूसी नहीं दिखाई , आखिर बात क्या है ?
गीता कहता है [ गीता सूत्र - 3.6 ] -- इद्रियों को जो हठात नियोजित करता है वह
अहंकारी होता है अर्थात वह जो अपनें मन की गति पर हठात अंकुश लगा
कर रखता है , वह अहंकारी होता है ।
अहंकार अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में से एक तत्त्व है [ गीता सूत्र - 7.4 ] और यह गुणों में गति देता है ।
गीता कहता है [ गीता सूत्र - 3.27 ] - करता भाव अहंकार के कारण
आता है और गीता सूत्र - 16.18 कहता है --अहंकार आसुरी स्वभाव का लक्षण है ।
आप जब गीता सूत्र - 18।58 - 18.59 को देखेंगे तो आप को मिलेगा की मोह में भी अहंकार की ऊर्जा होती है । गीता सूत्र - 2.62 कहता है - जब कामना टूटनें की आशंका होती है तब क्रोध पैदा होता है ।
क्रोध तीन गुणों - सात्विक , राजस एवं तामस में अपनी ऊर्जा को कुछ इस ढंग से बहता रहता है की मनुष्य प्रभु की सोच में अधिक समय तक अपनें को नही रख पाता । इन्दियाँ , मन या बुद्धि के साथ जोर जबरदस्ती करनें से अहंकार का फैलाव होता है । कामना में यह परिधि पर होता है और दूर से दिखता है लेकीन मोह में यह सिकुड़ कर केंद्र पर पहुँच जाता है जो ऊपर से नहीं दिखता लेकीन अन्दर से मनुष्य के मन - बुद्धि को नियंत्रित करता है ।
वह जो अपनें मन का पीछा करता रहता है और इस ध्यान विधि
में अपना समय अधिक लगाता है
उसको अहंकार प्रभावित नहीं कर पाता ।
वह जो अपनेंको आत्मा - परमात्मा पर केन्द्रित रखता है उसे अहंकार तब तक नहीं
छू पाता जब तक वह होश में रहता है ।
वह जो प्रकृति - पुरुष के रहस्य को समझता है उसे अहंकार नही छु पाता ।
वह जिसको अहंकार नहीं छू पाता वह प्रभु मय होता है और ऐसे लोग -----
दुर्लभ होते हैं ।
==== ॐ ======
अहंकार और क्रोध का सम्बन्ध क्या है ? आप इस सम्बन्ध में पौराणिक कथाओं को
देख सकते हैं ।
हमारे ऋषि लोग बात बात पर श्राप देते हैं , अपनें नाक पर मक्खी नहीं
बैठनें देते , आखिर कार कारण क्या है ?
त्रिकाल दर्शी ऋषि लोग , क्यों इतनें क्रोधी थे ? श्री राम एवं श्री कृष्ण तक को
ये ऋषि लोग श्राप देनें में कंजूसी नहीं दिखाई , आखिर बात क्या है ?
गीता कहता है [ गीता सूत्र - 3.6 ] -- इद्रियों को जो हठात नियोजित करता है वह
अहंकारी होता है अर्थात वह जो अपनें मन की गति पर हठात अंकुश लगा
कर रखता है , वह अहंकारी होता है ।
अहंकार अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में से एक तत्त्व है [ गीता सूत्र - 7.4 ] और यह गुणों में गति देता है ।
गीता कहता है [ गीता सूत्र - 3.27 ] - करता भाव अहंकार के कारण
आता है और गीता सूत्र - 16.18 कहता है --अहंकार आसुरी स्वभाव का लक्षण है ।
आप जब गीता सूत्र - 18।58 - 18.59 को देखेंगे तो आप को मिलेगा की मोह में भी अहंकार की ऊर्जा होती है । गीता सूत्र - 2.62 कहता है - जब कामना टूटनें की आशंका होती है तब क्रोध पैदा होता है ।
क्रोध तीन गुणों - सात्विक , राजस एवं तामस में अपनी ऊर्जा को कुछ इस ढंग से बहता रहता है की मनुष्य प्रभु की सोच में अधिक समय तक अपनें को नही रख पाता । इन्दियाँ , मन या बुद्धि के साथ जोर जबरदस्ती करनें से अहंकार का फैलाव होता है । कामना में यह परिधि पर होता है और दूर से दिखता है लेकीन मोह में यह सिकुड़ कर केंद्र पर पहुँच जाता है जो ऊपर से नहीं दिखता लेकीन अन्दर से मनुष्य के मन - बुद्धि को नियंत्रित करता है ।
वह जो अपनें मन का पीछा करता रहता है और इस ध्यान विधि
में अपना समय अधिक लगाता है
उसको अहंकार प्रभावित नहीं कर पाता ।
वह जो अपनेंको आत्मा - परमात्मा पर केन्द्रित रखता है उसे अहंकार तब तक नहीं
छू पाता जब तक वह होश में रहता है ।
वह जो प्रकृति - पुरुष के रहस्य को समझता है उसे अहंकार नही छु पाता ।
वह जिसको अहंकार नहीं छू पाता वह प्रभु मय होता है और ऐसे लोग -----
दुर्लभ होते हैं ।
==== ॐ ======
Thursday, May 20, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 10
तामस गुण - तत्त्व [ मोह , भय , आलस्य ]
गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र जी के श्लोक से होता है और अध्याय एक के कुल 47 श्लोकों में पहला श्लोक धृतराष्ट्र जी का तो है ही , अन्य 46 श्लोकों में 22 श्लोक अर्जुन के हैं और 24 श्लोक संजयजी के हैं ।
परम श्री कृष्ण अध्याय एक में अर्जुन के श्लोक 1.22 - 1.47 तक को जब सुनते हैं तब उनको यह स्पष्ट हो जाता है की
अर्जुन को मोह हो गया है । अर्जुन अपनें इन श्लोकों में कहते हैं ----
[क] मेरे शरीर में कम्पन हो रहा है .....
[ख] शरीर में खुजली हो रही है ......
[ग] गला सूख रहा है ..... आदि - आदि
अर्जुन यह भूल रहे हैं की वे यह बातें किस से कह रहे हैं ? इन बातों को सुननें वाला एक सांख्य - योगी है और
सांख्य की बुनियाद है - तर्क [ logic ] ।
यहाँ आप गीता के श्लोक - 2.1 , 2.52, 2.71, 4.10, 4.23 , 7.27 , 14.8 , 14.17 , 18.72 - 18.73 को देखें ।
परम श्री कृष्ण अर्जुन की बातों को सुननें के बाद कहते हैं [ गीता - 2।1 ]- असमय में तेरे को मोह कैसे हो गया ?
परम श्री कृष्ण आगे कहते हैं -----
[क] अर्जुन, मोह के साथ बैराग्य नहींहो सकता और तूं कहता है बैरागी बननें की बात ।
[ख] मोह में मन - बुद्धि अस्थिर होते हैं , बुद्धि में अज्ञान समाया हुआ होता है और अज्ञान में असत में सत
दिखता है ।
मोह क्या है ?
जो है आज लेकीन ऐसा भ्रम हो रहा हो की यह कल हमारे पास न होगा , तब उस मनुष्य के अन्दर उस बस्तु के लिए मोह पैदा होता है । मोह में आन्तातिक ऊर्जा सिकुडती है , अहंकार सिकुड़ कर परिधि से केंद्र की ओर चला जाता है और मोह प्रभावित ब्यक्ति समर्पण का नाटक करता है लेकीन समर्पण भाव उसमें आता नहीं ।
मोह उस ब्यक्ति के लिए खतरा तो है ही जो इस से प्रभावित है लेकीन उस ब्यक्ति के लिए भी खतरा होता है जो ऐसे
ब्यक्ति के साथ होता है । मोह वाला ब्यक्ति गिरगिट की तरह हर पल अपना रंग बदलता रहता है क्योंकि उसका
मन एवं बुद्धि अस्थिर होते हैं ।
सभी गुण तत्त्व जैसे -----
काम
कामना
क्रोध
लोभ
मोह
भय
आलस्य और
अहंकार मजबूत बंधन हैं जो भोग से बाहर जानें नहीं देते और प्रभु भोग में होता नहीं ।
भोग सविकार
मन - बुद्धि सीमा में होता है और प्रभु का बोध निर्विकार मन - बुद्धि से होता है ।
==== परम श्री कृष्ण ======
गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र जी के श्लोक से होता है और अध्याय एक के कुल 47 श्लोकों में पहला श्लोक धृतराष्ट्र जी का तो है ही , अन्य 46 श्लोकों में 22 श्लोक अर्जुन के हैं और 24 श्लोक संजयजी के हैं ।
परम श्री कृष्ण अध्याय एक में अर्जुन के श्लोक 1.22 - 1.47 तक को जब सुनते हैं तब उनको यह स्पष्ट हो जाता है की
अर्जुन को मोह हो गया है । अर्जुन अपनें इन श्लोकों में कहते हैं ----
[क] मेरे शरीर में कम्पन हो रहा है .....
[ख] शरीर में खुजली हो रही है ......
[ग] गला सूख रहा है ..... आदि - आदि
अर्जुन यह भूल रहे हैं की वे यह बातें किस से कह रहे हैं ? इन बातों को सुननें वाला एक सांख्य - योगी है और
सांख्य की बुनियाद है - तर्क [ logic ] ।
यहाँ आप गीता के श्लोक - 2.1 , 2.52, 2.71, 4.10, 4.23 , 7.27 , 14.8 , 14.17 , 18.72 - 18.73 को देखें ।
परम श्री कृष्ण अर्जुन की बातों को सुननें के बाद कहते हैं [ गीता - 2।1 ]- असमय में तेरे को मोह कैसे हो गया ?
परम श्री कृष्ण आगे कहते हैं -----
[क] अर्जुन, मोह के साथ बैराग्य नहींहो सकता और तूं कहता है बैरागी बननें की बात ।
[ख] मोह में मन - बुद्धि अस्थिर होते हैं , बुद्धि में अज्ञान समाया हुआ होता है और अज्ञान में असत में सत
दिखता है ।
मोह क्या है ?
जो है आज लेकीन ऐसा भ्रम हो रहा हो की यह कल हमारे पास न होगा , तब उस मनुष्य के अन्दर उस बस्तु के लिए मोह पैदा होता है । मोह में आन्तातिक ऊर्जा सिकुडती है , अहंकार सिकुड़ कर परिधि से केंद्र की ओर चला जाता है और मोह प्रभावित ब्यक्ति समर्पण का नाटक करता है लेकीन समर्पण भाव उसमें आता नहीं ।
मोह उस ब्यक्ति के लिए खतरा तो है ही जो इस से प्रभावित है लेकीन उस ब्यक्ति के लिए भी खतरा होता है जो ऐसे
ब्यक्ति के साथ होता है । मोह वाला ब्यक्ति गिरगिट की तरह हर पल अपना रंग बदलता रहता है क्योंकि उसका
मन एवं बुद्धि अस्थिर होते हैं ।
सभी गुण तत्त्व जैसे -----
काम
कामना
क्रोध
लोभ
मोह
भय
आलस्य और
अहंकार मजबूत बंधन हैं जो भोग से बाहर जानें नहीं देते और प्रभु भोग में होता नहीं ।
भोग सविकार
मन - बुद्धि सीमा में होता है और प्रभु का बोध निर्विकार मन - बुद्धि से होता है ।
==== परम श्री कृष्ण ======
Wednesday, May 19, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 09
[ग] काम ऊर्जा [ Sex Energy ]
गीता में काम से सम्बंधित निम्न श्लोकों को देखना चाहिए --------
3.36 - 3.43 तक , 5.23 , 5.26 , 16.21 , 7.11
गीता में अर्जुन अपनें तीसरे प्रश्न में प्रभु से जानना चाहते हैं ----
मनुष्य न चाह्तेहुये भी पाप क्यों करता है ?
प्रभु स्पष्ट रूप से कहते हैं - गीता - 3.37 ] - मनुष्य काम के सम्मोहन में पाप करता है ।
अध्याय तीन में श्लोक 3.37 से 3.43 तक में प्रभु कहते हैं -----
राजस गुण का मुख्य तत्त्व है काम और क्रोध , काम का रूपांतरण है क्यों की कामना टूटनें के संदेह में
क्रोध पैदा होता है - गीता - 2।62 । ।
काम का सम्मोहन इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि तक होता है लेकीन वह जिसका केंद्र - आत्मा होता है , काम से अप्रभावित रहता है । काम क्रोध एवं लोभ अर्थात राजस गुण के तत्त्व नरक के द्वार हैं और इनसे अप्रभावित ब्यक्ति ,
योगी होता है । प्रभु आगे यह भी कहते हैं ---- निर्विकार काम ऊर्जा , मैं हूँ ।
काम ऊर्जा एक ऎसी ऊर्जा है जिस से राम तक की यात्रा तो की जा सकती है लेकीन यह यात्रा है जोखिम भरी ।
तंत्र का एक भाग काम साधना है लेकीन इस मार्ग पर जो चलते हैं उनमें से अधिकाँश साधक पागल हो जाते हैं
और कुछ की मृत्यु भी हो जाती है ।
===== om ======
गीता में काम से सम्बंधित निम्न श्लोकों को देखना चाहिए --------
3.36 - 3.43 तक , 5.23 , 5.26 , 16.21 , 7.11
गीता में अर्जुन अपनें तीसरे प्रश्न में प्रभु से जानना चाहते हैं ----
मनुष्य न चाह्तेहुये भी पाप क्यों करता है ?
प्रभु स्पष्ट रूप से कहते हैं - गीता - 3.37 ] - मनुष्य काम के सम्मोहन में पाप करता है ।
अध्याय तीन में श्लोक 3.37 से 3.43 तक में प्रभु कहते हैं -----
राजस गुण का मुख्य तत्त्व है काम और क्रोध , काम का रूपांतरण है क्यों की कामना टूटनें के संदेह में
क्रोध पैदा होता है - गीता - 2।62 । ।
काम का सम्मोहन इन्द्रिय , मन एवं बुद्धि तक होता है लेकीन वह जिसका केंद्र - आत्मा होता है , काम से अप्रभावित रहता है । काम क्रोध एवं लोभ अर्थात राजस गुण के तत्त्व नरक के द्वार हैं और इनसे अप्रभावित ब्यक्ति ,
योगी होता है । प्रभु आगे यह भी कहते हैं ---- निर्विकार काम ऊर्जा , मैं हूँ ।
काम ऊर्जा एक ऎसी ऊर्जा है जिस से राम तक की यात्रा तो की जा सकती है लेकीन यह यात्रा है जोखिम भरी ।
तंत्र का एक भाग काम साधना है लेकीन इस मार्ग पर जो चलते हैं उनमें से अधिकाँश साधक पागल हो जाते हैं
और कुछ की मृत्यु भी हो जाती है ।
===== om ======
Tuesday, May 18, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 08
[ख] राजस गुण तत्त्व - कामना, क्रोध ,लोभ
यहाँ हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ...........
2.11 , 2.55 , 2.62 , 2.63 , 2.71 , 4.10 , 4.19 , 5.23 , 5.26 ,
6.2 , 6.4 , 6.24 , 7.20 , 7.27 , 14.7 , 14.12 , 15.5
आइये अब देखते हैं इन सूत्रों में क्या है जो भोग से योग में यात्रा कराता है -------
सूत्र - 2.11 सम भाव ब्यक्ति , पंडित है
सूत्र - 2.55 कामना से अछूता , आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति है
सूत्र - 2.62 - 2.63 कामना टूटनें का गम क्रोध पैदा करता है , क्रोध में ब्यक्ति का संतुलन बिगड़ जाता है और
वह पाप कर बैठता है ।
सूत्र - 2.71 कामना - ममता रहित ब्यक्ति शांत बुद्धि वाला होता है
सूत्र - 4.10 राग - भय क्रोध रहित ब्यक्ति ग्यानी होता है
सूत्र - 4.19 कामना - संकल्प रहित ब्यक्ति , पंडित - ग्यानी होता है
सूत्र - 5.23 , 5.26 कामना - क्रोध से अप्रभावित ब्यक्ति परम से परिपूर्ण होता है
सूत्र - 6.2, 6.4 संकल्प रहित ब्यक्ति , योगी होता है
सूत्र - 6.24 संकल्प कामना ही जड़ है
सूत्र - 7.20 कामना अज्ञान की जननी है
सूत्र -7.27 कामना - मोह अज्ञान की जननी हैं
सूत्र - 14.7 आसक्ति, कामना , राग राजस गुण के तत्त्व हैं
सूत्र - 14.12 लोभ राजस गुण से आता है
सूत्र - 15.5 आसक्ति - कामना राहोत कर्म करनें वाला परम पद प्राप्त करता है
राजस गुण के तत्वों को स्पष्ट करनें के लिए गीता से कुछ ऐसे सूत्रों को यहाँ लिया गया है जो राजस गुण को ठीक
ढंग से स्पष्ट कर सकें । मैं कोई बैरागी नहीं , मैं कोई योगी नहीं , मैं भोग में हूँ और अब एक - एक कदम फूक
फूक कर चल रहा हूँ लेकीन भयभीत भी नहीं हूँ । मैं सोचता हूँ परमात्मा हमें सब कुछ दिया , सब कुछ दिखाया ,
पृथ्वी के तीन चौथाई भाग का भ्रमण भी कराया लेकीन अपनी इस ६० साल के जीवन में कभी अन्दर वह त्वरा
न पैदा हुई जो यह कहे -----
अरे भोलू कहाँ तक और कब तक भागता रहेगा , यदि देखना ही है तो उसे क्यों नहीं देखनें के बारे में सोचता जो
इस संसार का आदि मध्य और अंत है , बश जिस दिन यह भाव उठा , गीता अपनें आप मेरे हांथों में आ गया ।
गीता को मैं प्रभु की किताब समझ कर भय भीत नहीं रहता , गीता तो मेरा मित्र है जो हर पल मेरे साथ रहता है ।
गीता उब सब का द्रष्टा है जो मैं करता हूँ , जो मैं सुनता हूँ , जो मैं सोचता हूँ और अब तो यही चाह है की -----
संसार से बिदा होते समय गीता कका परम प्रकाश मेरे चारों ओर रहे ।
जर्मनी का महान लेखक गेटे जब दम तोड़ रहा था तब बोला ------
सारे दीपक बुझा दो , अब इनकी जरुरत नहीं क्यों की अब मुझे परम प्रकाश दिख रहा है ।
==== हे दीना नाथ =======
यहाँ हमें गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ...........
2.11 , 2.55 , 2.62 , 2.63 , 2.71 , 4.10 , 4.19 , 5.23 , 5.26 ,
6.2 , 6.4 , 6.24 , 7.20 , 7.27 , 14.7 , 14.12 , 15.5
आइये अब देखते हैं इन सूत्रों में क्या है जो भोग से योग में यात्रा कराता है -------
सूत्र - 2.11 सम भाव ब्यक्ति , पंडित है
सूत्र - 2.55 कामना से अछूता , आत्मा केन्द्रित ब्यक्ति है
सूत्र - 2.62 - 2.63 कामना टूटनें का गम क्रोध पैदा करता है , क्रोध में ब्यक्ति का संतुलन बिगड़ जाता है और
वह पाप कर बैठता है ।
सूत्र - 2.71 कामना - ममता रहित ब्यक्ति शांत बुद्धि वाला होता है
सूत्र - 4.10 राग - भय क्रोध रहित ब्यक्ति ग्यानी होता है
सूत्र - 4.19 कामना - संकल्प रहित ब्यक्ति , पंडित - ग्यानी होता है
सूत्र - 5.23 , 5.26 कामना - क्रोध से अप्रभावित ब्यक्ति परम से परिपूर्ण होता है
सूत्र - 6.2, 6.4 संकल्प रहित ब्यक्ति , योगी होता है
सूत्र - 6.24 संकल्प कामना ही जड़ है
सूत्र - 7.20 कामना अज्ञान की जननी है
सूत्र -7.27 कामना - मोह अज्ञान की जननी हैं
सूत्र - 14.7 आसक्ति, कामना , राग राजस गुण के तत्त्व हैं
सूत्र - 14.12 लोभ राजस गुण से आता है
सूत्र - 15.5 आसक्ति - कामना राहोत कर्म करनें वाला परम पद प्राप्त करता है
राजस गुण के तत्वों को स्पष्ट करनें के लिए गीता से कुछ ऐसे सूत्रों को यहाँ लिया गया है जो राजस गुण को ठीक
ढंग से स्पष्ट कर सकें । मैं कोई बैरागी नहीं , मैं कोई योगी नहीं , मैं भोग में हूँ और अब एक - एक कदम फूक
फूक कर चल रहा हूँ लेकीन भयभीत भी नहीं हूँ । मैं सोचता हूँ परमात्मा हमें सब कुछ दिया , सब कुछ दिखाया ,
पृथ्वी के तीन चौथाई भाग का भ्रमण भी कराया लेकीन अपनी इस ६० साल के जीवन में कभी अन्दर वह त्वरा
न पैदा हुई जो यह कहे -----
अरे भोलू कहाँ तक और कब तक भागता रहेगा , यदि देखना ही है तो उसे क्यों नहीं देखनें के बारे में सोचता जो
इस संसार का आदि मध्य और अंत है , बश जिस दिन यह भाव उठा , गीता अपनें आप मेरे हांथों में आ गया ।
गीता को मैं प्रभु की किताब समझ कर भय भीत नहीं रहता , गीता तो मेरा मित्र है जो हर पल मेरे साथ रहता है ।
गीता उब सब का द्रष्टा है जो मैं करता हूँ , जो मैं सुनता हूँ , जो मैं सोचता हूँ और अब तो यही चाह है की -----
संसार से बिदा होते समय गीता कका परम प्रकाश मेरे चारों ओर रहे ।
जर्मनी का महान लेखक गेटे जब दम तोड़ रहा था तब बोला ------
सारे दीपक बुझा दो , अब इनकी जरुरत नहीं क्यों की अब मुझे परम प्रकाश दिख रहा है ।
==== हे दीना नाथ =======
Monday, May 17, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 07
राजस गुण तत्त्व
[क] - आसक्ति
आसक्ति क्या है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में देक्खिये गीता के इन श्लोकों को ........
2.48 , 2.58 - 2.62 , 2.64 , 2.67 , 2.68 , 3.6 , 3.7 , 3.19 , 3.20
3.26 ,3.34 , 4.20 ,4.22 , 5.10 , 5.11 , 5.21 , 6.6 , 6.8 , 6.24
8.11 , 13.8 , 14.7, 18.6, 18.11, 18.49, 18.50
बिषय , इन्द्रिय , मन , बुद्धि का एक समीकरण है । पांच ज्ञान इन्द्रियों के अपनें -अपनें बिषय हैं जो शरीर के बाहर हैं । इन्द्रियों का स्वभाव है , अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण करना । जब कोई इन्द्रिय अपनें बिषय में पहुंचती है तब उस बिषय में स्थित राग - द्वेष से वह बच नहीं पाती और उनसे सम्मोहित हो कर मन को राजस गुण से सम्बंधित सूचना भेजती है । इन्द्रिय - बिषय के संयोग से मन में वह भाव पैदा होता है जो गुण मन पर प्रभावी होता है । इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन में जो ऊर्जा पैदा होती है और जिसमें उस बिषय को भोगनें की भावना होती है, वह है आसक्ति । आसक्ति मन की ऊर्जा है जो इन्द्रिय - बिषय के संयोग से एवं गुणों के प्रभाव में पैदा होती है ।
आसक्ति से कामना उठती है , कामना टूटनें पर क्रोध पैदा होता है और क्रोध अज्ञान का बीज है ।
तीन प्रकार के गुण हैं और तीन प्रकार की आसक्ति होती है । सात्विक आसक्ति में ब्यक्ति प्रभु से जुड़ता है , राजस
आसक्ति में भोग से जुड़ता है और तामस आसक्ति में मोह बंधन में फसता है ।
आसक्ति वह पहला तत्त्व है जहां से कर्म योग प्रारम्भ होता है ।
वह जो आसक्ति को साध लिया ..........
कामना मुक्त हो गया -------
क्रोध मुक्त हो गया .......
भोग मुक्त हो गया ........
योगी हो गया जैसे ----
राजा जनक एवं ----
आसक्ति रहित कर्म से कर्म की सिद्धि मिलती है , ऎसी सिद्धि जो -----
ज्ञान - योग की परा निष्ठा होती है ।
===== ॐ ======
[क] - आसक्ति
आसक्ति क्या है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में देक्खिये गीता के इन श्लोकों को ........
2.48 , 2.58 - 2.62 , 2.64 , 2.67 , 2.68 , 3.6 , 3.7 , 3.19 , 3.20
3.26 ,3.34 , 4.20 ,4.22 , 5.10 , 5.11 , 5.21 , 6.6 , 6.8 , 6.24
8.11 , 13.8 , 14.7, 18.6, 18.11, 18.49, 18.50
बिषय , इन्द्रिय , मन , बुद्धि का एक समीकरण है । पांच ज्ञान इन्द्रियों के अपनें -अपनें बिषय हैं जो शरीर के बाहर हैं । इन्द्रियों का स्वभाव है , अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण करना । जब कोई इन्द्रिय अपनें बिषय में पहुंचती है तब उस बिषय में स्थित राग - द्वेष से वह बच नहीं पाती और उनसे सम्मोहित हो कर मन को राजस गुण से सम्बंधित सूचना भेजती है । इन्द्रिय - बिषय के संयोग से मन में वह भाव पैदा होता है जो गुण मन पर प्रभावी होता है । इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन में जो ऊर्जा पैदा होती है और जिसमें उस बिषय को भोगनें की भावना होती है, वह है आसक्ति । आसक्ति मन की ऊर्जा है जो इन्द्रिय - बिषय के संयोग से एवं गुणों के प्रभाव में पैदा होती है ।
आसक्ति से कामना उठती है , कामना टूटनें पर क्रोध पैदा होता है और क्रोध अज्ञान का बीज है ।
तीन प्रकार के गुण हैं और तीन प्रकार की आसक्ति होती है । सात्विक आसक्ति में ब्यक्ति प्रभु से जुड़ता है , राजस
आसक्ति में भोग से जुड़ता है और तामस आसक्ति में मोह बंधन में फसता है ।
आसक्ति वह पहला तत्त्व है जहां से कर्म योग प्रारम्भ होता है ।
वह जो आसक्ति को साध लिया ..........
कामना मुक्त हो गया -------
क्रोध मुक्त हो गया .......
भोग मुक्त हो गया ........
योगी हो गया जैसे ----
राजा जनक एवं ----
आसक्ति रहित कर्म से कर्म की सिद्धि मिलती है , ऎसी सिद्धि जो -----
ज्ञान - योग की परा निष्ठा होती है ।
===== ॐ ======
Sunday, May 16, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 06
गीता में क्षेत्रज्ञ कौन है ?
गीता श्लोक - 13.2 कहता है ----
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है । क्षेत्र हमारा सविकार देह है और क्षेत्रज्ञ है निर्विकार प्रभु ।
गीता सूत्र - 13.15 में प्रभु अर्जुन को बताते हैं - हे अर्जुन प्रभु सब के करीब है , दूर है , सब के बाहर है , सब के
अन्दर है और सभी जड़ - चेतन भी वही है । गीता में प्रभु यह भी कहते हैं -----
मैं अमृत हूँ , मैं मृत्यु हूँ , मैं महा काल हूँ , मैं सत हूँ और मैं ही असत भी हूँ एवं मैं न सत हूँ और न ही असत हूँ
[ देखिये गीता -9.19 , 13.12 , 11.37 ]
J Krishnamurthy कहते हैं --- Truth is pathless journey और गीत कहता है --- कोई ऐसा सत नहीं
जिसके चारो तरफ असत का छिलका न चढ़ा हो [ गीता - 2।16 , 18.40 ] , जब तक असत का बोध नहीं होता ,
सत की पहचान करना कठिन है । प्रभु कोई बिषय नही है जिसको किताबों के अध्ययन से प्राप्त किया जा
सके , प्रभु की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की अनुभूति है [ गीता - 12.3 - 12.4 ]
क्षेत्रज्ञ की अनुभति कही भी किसी भी समय और किसी भी स्थिति में हो सकती है
यदि क्षेत्र की अनुभूति
पक्की हो और -----
** भोग तत्वों का बोध हो ......
** भोग तत्वों के सम्मोहन का बोध हो ......
** राग के आकर्षण का बोध हो .....
** काम के सम्मोहन का बोध हो .....
** अहंकार के पैनेपन का बोध हो ....
और जब ऐसा होता है तब -----
प्रभु [ क्षेत्रज्ञ ] को खोजना नही पड़ता ।
==== ॐ ======
Saturday, May 15, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 05
प्रकृति क्या है ?
गीता में निम्न सूत्रों को आप देखें ------
7.4 - 7.6 , 13.4 - 13.5 , 13.2 , 13.19 , 13.23 , 13.34 ,
7,12 - 7।15 , 12.3 - 12.4 , 2.42 - 2.44 , 14.3 - 14.4 ,
गीता कहता है - प्रकृति एवं पुरुष के योग से जीव बनाता है । गीता का यह छोटा सा सूत्र वह है जिसको आज विज्ञान अनेक रास्तों से खोज रहा है । नुक्लिअर विज्ञान में न्यूक्लिअर फुजन होता है जिसमें दो हलके एटम मिल कर
तीसरे एक भारी एटम का निर्माण करते हैं और इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में ऊर्जा बाहर निकलती है ।
गीता तत्त्व - विज्ञान में नर एवं मादा के एटम जब आपस में मिलते हैं और इन दोनों के मिलनें से यदि ऎसी ऊर्जा
निकले जो ब्रह्म ऊर्जा को अपनी ओर खीच सके तब जीव की उत्पत्ती होती है ; यह प्रक्रिया डबल न्यूक्लिअर
फ्यूजन की तरह ही है ।
अपरा एवं परा , प्रकृति के दो रूप हैं ; एक सविकार है जिसको मन - बुद्धि स्तर पर समझा जा सकता है और
दूसरी है - परा जो निर्विकार चेतना है जिसको समझनें के लिए ध्यान से गुजरना पड़ता है ।
अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं ; पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार । पूरा ब्रह्माण्ड गति मान है , हमारी गलेक्सी
घूम रही है , पृथ्वी अपनें धुरी पर एवं सूर्य के चरों तरफ चक्कर लगा रही है और पृथ्वी के परिधि पर हम सब
चल रहे हैं , और पञ्च महाभूतों के सहयोग से कुछ - कुछ कर रहे हैं , यह सब मिल कर प्रकृति में
एक परिवर्तन की लहर पैदा करता है जो प्रकृति में साकार सूचनाओं के रूपांतरण में सहयोग करता रहता है ।
जो कुछ हम करते हैं उसका सीधा सम्बन्ध अपरा प्रकृति से होता है लेकीन करते समय हम केवल अपना
स्वार्थ देखते हैं और यह भूल जाते हैं की जो हम कर रहे हैं उसका असर प्रकृति पर कैसा पड़ेगा ?
अपरा प्रकृति , परा प्रकृति एवं मनुष्य से वह वातावरण बनाता है जिसमें अन्य जीव जीते हैं , जल , वायु एवं
तापक्रम में एक संतुलन सा बन जाता है और यह संतुलन ही जीवों के लिए जीवन रेखा का काम करता है ।
आज विज्ञान - युग में .......
पृथ्वी द्रोपती की तरह कराह रही है -----
निर्वस्त्र सिसक रही है ------
अन्दर- बाहर से खोखली हो रही है .......
सर से गंजी हो चली है और कह रही है ......
हे प्रभु ! इन इंसानों को सत बुद्धी दो ।
===== ॐ =======
गीता में निम्न सूत्रों को आप देखें ------
7.4 - 7.6 , 13.4 - 13.5 , 13.2 , 13.19 , 13.23 , 13.34 ,
7,12 - 7।15 , 12.3 - 12.4 , 2.42 - 2.44 , 14.3 - 14.4 ,
गीता कहता है - प्रकृति एवं पुरुष के योग से जीव बनाता है । गीता का यह छोटा सा सूत्र वह है जिसको आज विज्ञान अनेक रास्तों से खोज रहा है । नुक्लिअर विज्ञान में न्यूक्लिअर फुजन होता है जिसमें दो हलके एटम मिल कर
तीसरे एक भारी एटम का निर्माण करते हैं और इस प्रक्रिया में भारी मात्रा में ऊर्जा बाहर निकलती है ।
गीता तत्त्व - विज्ञान में नर एवं मादा के एटम जब आपस में मिलते हैं और इन दोनों के मिलनें से यदि ऎसी ऊर्जा
निकले जो ब्रह्म ऊर्जा को अपनी ओर खीच सके तब जीव की उत्पत्ती होती है ; यह प्रक्रिया डबल न्यूक्लिअर
फ्यूजन की तरह ही है ।
अपरा एवं परा , प्रकृति के दो रूप हैं ; एक सविकार है जिसको मन - बुद्धि स्तर पर समझा जा सकता है और
दूसरी है - परा जो निर्विकार चेतना है जिसको समझनें के लिए ध्यान से गुजरना पड़ता है ।
अपरा प्रकृति में आठ तत्व हैं ; पञ्च महाभूत , मन , बुद्धि एवं अहंकार । पूरा ब्रह्माण्ड गति मान है , हमारी गलेक्सी
घूम रही है , पृथ्वी अपनें धुरी पर एवं सूर्य के चरों तरफ चक्कर लगा रही है और पृथ्वी के परिधि पर हम सब
चल रहे हैं , और पञ्च महाभूतों के सहयोग से कुछ - कुछ कर रहे हैं , यह सब मिल कर प्रकृति में
एक परिवर्तन की लहर पैदा करता है जो प्रकृति में साकार सूचनाओं के रूपांतरण में सहयोग करता रहता है ।
जो कुछ हम करते हैं उसका सीधा सम्बन्ध अपरा प्रकृति से होता है लेकीन करते समय हम केवल अपना
स्वार्थ देखते हैं और यह भूल जाते हैं की जो हम कर रहे हैं उसका असर प्रकृति पर कैसा पड़ेगा ?
अपरा प्रकृति , परा प्रकृति एवं मनुष्य से वह वातावरण बनाता है जिसमें अन्य जीव जीते हैं , जल , वायु एवं
तापक्रम में एक संतुलन सा बन जाता है और यह संतुलन ही जीवों के लिए जीवन रेखा का काम करता है ।
आज विज्ञान - युग में .......
पृथ्वी द्रोपती की तरह कराह रही है -----
निर्वस्त्र सिसक रही है ------
अन्दर- बाहर से खोखली हो रही है .......
सर से गंजी हो चली है और कह रही है ......
हे प्रभु ! इन इंसानों को सत बुद्धी दो ।
===== ॐ =======
Friday, May 14, 2010
गीता गुण रहस्य भाग - 04
आत्मा , गुण और कर्म सम्बन्ध
यहाँ आप देख सकते हैं , गीता के इन श्लोकों को -----
2.45, 3.5, 3.27, 3.33
2.14, 5.22, 18.11, 18.35
जब आप ऊपर बताये श्लोकों को अपनाएंगे तब आप को जो मिलेगा वह कुछ इस प्रकार से होगा ..........
[क] मनुष्य जो कुछ भी करता है वह गुणों के प्रभाव में करता है
[ख] गुणों के प्रभाव में जो होता है , वह है - भोग
[ग] भोग उसे कहते हैं जिसके करनें में सुख मिले पर परिणाम मिलनें के बाद दुःख हो
[घ] कर्म में यह समझना की गुण कर्म करता हैं , मनुष्य को द्रष्टा बनाता है
[च] कर्म का त्याग करना संभव नहीं , कर्म तो करना ही पड़ेगा
[छ] कर्म साधना का एक परम माध्यम है
[ज] कर्म के बिना गुण तत्वों को समझना संभव नहीं
[झ] कर्म से निष्कर्मता की सिद्धि मिलती है
[प] कर्म में गुण तत्वों की साधना कर्म में अकर्म - भाव पैदा करती है जो साधना का फल है
[फ] तीन गुण देह में आत्मा को रोक कर रखते हैं
===== एक प्रभु =======
गीता गुण रहस्य -- भाग - 03
प्रभु - गुण सम्बन्ध
यहाँ हम गीता के छः श्लोकों को देखनें जा रहे हैं -------
[क] श्लोक - 2.16 ..... सत भावातीत है
[ख] श्लोक - 18.40 ... कोई ऐसा सत नहीं जिस पर असत की छाया न हो
[ग] श्लोक -7.12 - 7.13 .... तीन गुण एवं उनके भाव प्रभु से हैं पर प्रभु उन गुणों एवं भावों में नहीं होता
[घ] श्लोक - 7.14 - 7.15 .... तीन गुणों का एक माध्यम है जिसको माया कहते हैं ।
माया मनुष्य के मन - बुद्धि को प्रभु की ओर घूमनें नहीं देती । माया से अप्रभावित
ब्यक्ति , योगी होता है ।
बीसवी सताब्दी के प्रारम्भ में जब आइन्स्टाइन अपने सापेक्ष सिद्धांत को विज्ञान जगत
के सामनें रखा तो उस समय उनके सिद्धांतों में गणित के समीकरण न थे ,
गणित का समर्थन उन सिद्धांतों को मिला लगभग एक दसक बाद -
Hermann Minikowski संन 1909 में आइन्स्टाइन के सिद्धांत को गणित का
जामा पहनाया और अब Particle Scientist एवं Quantum Mechnics के वैज्ञानिक
गीता एवं उपनिसदों के सिद्धांतों को गणित में ढाल रहे हैं । मैं तो नहीं कर सकता लेकीन उम्मीद रखता हूँ की आनें वाले दिनों में गीता से विज्ञान अवश्य निकाला जाएगा ।
गीता का सूक्ष्म विज्ञान कहता है -----
प्रभु से तीन गुण हैं , तीन गुणों के अपनें - अपनें तत्त्व हैं , तीन गुण अपने - अपने भाव मनुष्य के अन्दर पैदा करते हैं और उन भावों में आकर मनुष्य वैसे - वैसे कर्म करता है । कर्म का परिणाम सुख - दुःख का कारण है ।
माया तीन गुणों का माध्यम अपने अपरा- परा प्रकृतियों से जगत को चलाती है । वह जो माया से प्रभावित है , प्रभु मय हो नहीं सकता अर्थात माया प्रभु की ओर रुख नहीं करनें देती और माया मुक्त ब्यक्ति , योगी होता है ।
==== ॐ =====
Wednesday, May 12, 2010
गुण तत्त्व क्या हैं ? भाग - 02
गुण तत्वों को समझो
गुण प्रभु से उपजे वे रसायन हैं जो ----
** आत्मा को देह से जोड़ते है
** मनुष्य को संसार से जोड़ते हैं
यह बात मैं नहीं गीता कहता है , आइये देखते हैं गीता में गुण तत्त्व क्या हैं ?
[क] सात्विक गुण तत्त्व
सात्विक गुण मनुष्य को प्रभुकी तरफ ले जाता है और इस गुण के प्रभावी होनें पर ........
* मनुष्य परम प्रकाश की झलक देखता है
** मनुष्य ग्यानी एवं बैरागी बन जाता है ..... गीता श्लोक - 14.6, 14.11, 14.14
[ख] राजस गुण के तत्त्व
राजस गुण भोग की ओर ले जाता है और इसके तत्त्व हैं -----
* आसक्ति , काम , कामना , क्रोध , लोभ , देखिये गीता श्लोक - 14.7, 14.9, 14.12, 2.62-2.63, 3.37.6.27,
[ग] तामस गुण के तत्त्व
तामस गुण सात्विक एवं राजस - दोनों में अवरोध पिया करता है ।
इसका केंद्र है - देह में , नाभि ।
तामस तत्त्व हैं ------
* मोह , आलस्य , भय , यहाँ आप देख सकते हैं गीता के श्लोक ----
14.17, 14.13, 2.52, 18.72 - 18.73
राजस एवं तामस गुण तत्वों के प्रभाव में मनुष्य अज्ञान में रहता है और अज्ञान में मन -बुद्धि अस्थिर होते हैं ।
जिस इन गीता का गुण रहस्य विज्ञान के हाँथ में पहुंचेगा , वह दिन विज्ञान के लिए एक नया दिन होगा ।
===== जय श्री कृष्ण =======
गीता गुण - तत्त्व ---- भाग - 01
गुण तत्व क्या हैं ?
गीता में गुण वह परम रसायन हैं जो तीन प्रकार के होते हैं और तीनों मिल कर एक अति सूक्ष्म माध्यम
का निर्माण करते है जिसको माया कहते हैं ।
माया से सम्मोहित ब्यक्ति प्रभु की ओर अपना रुख नहीं कर पाता ।
गुणों का होना प्रभु की देन है लेकीन गुण प्रभु के अन्दर नहीं हैं और प्रभु गुणों से प्रभावित भी नहीं होता ।
माया दो प्रकृतियों से है ; अपरा और परा जो ब्रह्माण्ड की सभी सूचनाओं का निर्माण करती हैं ।
माया एक झीने परदे की तरह है जिसके एक तरफ प्रभु की किरण होती है और दूसरी तरफ
भोग का आकर्षण ।
यह बात सत्य तो नहीं है लेकीन सत को ब्यक्त करनें के लिए असत का सहारा तो
लेना ही पड़ता है ।
माया का सम्मोहन मन - बुद्धि के अन्दर बहनें वाली ऊर्जा को कुछ इस प्रकार से
रूपांतरित कर देती है की मन - बुद्धि में प्रभु की किरण को देखनें की
शक्ति आ नहीं पाती ।
==== ॐ =====
Tuesday, May 11, 2010
जपजी साहिब - 21
सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाऊ
अंतर्गति तीरथि मलि नाउ
जा करता सिरठी कउ साजे
आपे जानै सोई
किव करि आखा किव सालाही
किउ बरनी किव जाणा ॥
जपजी के माध्यम से आदि गुरूजी साहिब कह रहे हैं -------
सृष्टि का रचनाकरता , करता पुरुष .....
जो सबकी सुध रखता है .....
जो उसे बैठाए , मन में .....
वह स्वयं तीर्थ बन जाता है ......
उसे -----
कैसे ब्यक्त करूँ -----
कैसे गाउ .....
और -----
कैसे जानू ॥
भक्त - एक परा भक्त - एक भक्त जो साकार उपासना से निराकार में पहुच गया हो ,
वह एक कटी पतंग की तरह बाहर - बाहर से दिखता है लेकीन अन्दर से वह
शांत झील की तरह शांत रहता हुआ कस्तूरी मृग की तरह प्रभु के चारों तरफ नाचता रहता है । ऐसा भक्त बाहर से पागल सा दिखता है लेकीन होता है ,
त्रिकाल दर्शी ।
आदि गुरु परा भक्त थे , जो कहना चाहते थे कह न पाए , जो देखना चाहते थे , उसे देखे जरुर पर ब्यक्त न कर पाए ।
ऐसे गुरु , ऐसे भक्त जो प्रभु से परिपूर्ण होते हैं , वे कई सदियों के बाद प्रकट होते हैं ।
धन्य था वह वक़्त जब भारत भूमि पर -----
नानकजी साहिब .....
मीरा .....
और कबीरजी साहिब एक साथ रहे ॥
==== एक ओंकार =====
Sunday, May 9, 2010
जपजी साहिब - 20
भरिए हथु पैरु तनु देह
पाणी धोते उतरसु खेह
भरिए मति पापा के संगि
ओहु धोपै नावै के रंगि
आपे बीजि आपे ही खाहु
नानक हुकमी आवहु जाहु ॥
आदि गुरूजी साहिब कह रहे हैं ------
तन को निर्मल करता पानी .....
निर्मल बुद्धि नाम से होती .....
जैसा करनी वैसा भरनी .....
जीवन - मरण प्रभु की करनी ॥
अब आप इस सम्बन्ध में गीता को देखिये ------
[क] गीता सूत्र - 6.20 - 6.21 ...... ध्यान से बुद्धि निर्मल होती है
[ख] गीता सूत्र - 13.24 ...... ध्यान से प्रभु ह्रदय में मिलता है
[ग] गीता सूत्र - 4.38 .... ध्यान से ज्ञान मिलता है
[घ] गीता सूत्र - 13.2 .... ज्ञान से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध होता है
[च] गीता - 5.14 ......... प्रभु करता पंन ,कर्म एवं कर्म फल की रचना नहीं करता , यह सब स्वभाव से होते हैं
===== एक ओंकार =====
Saturday, May 8, 2010
जपजी साहिब - 19
असंख नाव असंख थाव
अखरी नामु अखरी सालाह
अखरी गियानु गीत गुण गाह
अखिरी लिखणु बोलणु बाणी
विणु नावै नाही को थाऊ
तूं सदा सलामति निरंकार ॥
आदि गुरूजी साहिब कहतेहैं ----
अनगिनत उसके नाम - स्थान हैं
अक्षर ही उसका नाम और प्रशंसक है
अक्षर ज्ञान , गीत और गुण है
अक्षर से वाणी और लेख हैं
तूं निरंकार सर्वत्र है ॥
अब आप गुरु की इन बातों के सम्बन्ध में गीता को देखिये ------
गीता सूत्र - 8.3 ....... अक्षरं ब्रह्म परमं
गीता सूत्र - 8.21 .... अब्यक्त : अक्षर
गीता सूत्र - 10.25 .. एकं अक्षरम
गीता सूत्र - 10.35 .. गायत्री छंद अहम्
गीता सूत्र - 7.8 ...... प्रणवः सर्ववेदेषु , और आगे ------
गीता में अर्जुन का तेरहवां प्रश्न है ..........
साकार और निराकार योगियों में उत्तम योगी कौन है ? उत्तर में प्रभु कहते हैं ----
सभी योगी उत्तम हैं लेकीन जो प्रेम से मुझे भजता है , वह मुझे भाता है ।
निराकार उपासना अति कठिन उपासना है और ऐसे योगी
दुर्लभ होते हैं [ गीता - 7.3, 7.19, 12.5 ]
सत , सत है , सत का रंग कभी नही बदलता चाहे वह शांख्य - योगी द्वारा ब्यक्त हो
या परम प्रीति में डूबे परा भक्त के द्वारा ब्यक्त किया जा रहा हो ।
निराकार की उपासना क्यों कठिन उपासना है ?
जिसको हम पहचानते नहीं , जानते नहीं , कभी देखा नहीं , कभी
जिसकी आवाज को सूना नहीं , उस पर
हम अपना ध्यान केन्द्रित कैसे कर सकते हैं ?
साकार से निराकार में पहुँचना -----
सगुण से निर्गुण में प्रवेश पाना -----
एक घटना है जो हजारों में किसी एक के साथ घटती है और वह ब्यक्ति होता है .....
आदि गुरु नानकजी साहिब , कबीरजी साहिब जैसा लेकीन ऐसे लोग सदियों के बाद अवतरित होते हैं ।
==== एक ओंकार ======
Friday, May 7, 2010
जपजी साहिब - 18
असंख गल बढ़ हतिआ कमाहि
असंख पापी पापु करि जाई
असंख मलेछ मलु भखि खाहि
असंख निंदक सिरि करहि भारु
नानकु नीचु कहैं बीचारु
तूं सदा सलामत निरंकार ॥
आदि गुरु श्री नानकजी साहिब कहते हैं -----
लोगों का गला काटनें वाले पापी - हत्यारे .....
अनेक हैं ।
निंदक भी अनेक हैं .....
गंदा भोजन करनें वाले मलेक्ष भी अनेक हैं ।
नानकजी साहिब कहते हैं ----
प्रभु ! तूं तो निराकार हो ।
आप यहाँ गीता सूत्र - 18.19 - 18.44 तक और 17.4 - 17.22 तक को देखें ।
गीता कहता है ......
गुण विज्ञान में तीन प्रकार के गुण हैं , तीन प्रकार के लोग हैं और उन सबका अपना - अपना -----
मन है .....
बुद्धि है .....
पूजा है ....
यज्ञ है ....
साधना है ....
खान - पान , कर्म , सुख , दुःख हैं ......
गीता आगे यह भी कहता है - गीता - 7.12 - 7.13 -----
तीन गुण प्रभु से हैं लेकीन प्रभु गुनातीत है । वह जो गुणों के सम्मोहन में उलझा रहता है , वह प्रभु से दूर रहता है ।
गुण प्रभु एवं मनुष्यके मध्य एक परदे का काम करते हैं अर्थात प्रभु के आयाम में पहुंचनें वाला गुणों से
सम्मोहित नहीं होता ।
गीता में अर्जुन का तीसरा प्रश्न है -----
मनुष्य पाप क्यों करता है - गीता .... 3.36, और प्रभु अर्जुन से कहते हैं ------
मनुष्य पाप करताहै , काम के सम्मोहन में आकर और काम राजस गुण का मूल तत्त्व है [ गीता - 3.37 ]
जपजी में एक तरफ है परा भक्त श्री नानकजी साहिब की बात और दूसरी ओर है - बुद्धि - योग का सांख्य - योग
जो परम श्री कृष्ण अर्जुन को तब देते हैं जब अर्जुन के सर पर युद्ध के बादल गरज रहे हैं , आप को जो पसंद
आये आप उसे धारण करें , लेकीन इतनी सी बात याद रखें ----
दोनों मार्ग आप को एक ही जगह पहुंचाते हैं ।
===== एक ओंकार =====
Thursday, May 6, 2010
जपजी साहिब - 17
असंख्य जप असंख्य भाऊ ......
असंख्य पूजा असंख्य तप ताऊ ....
असंख्य गरंथ मुखि वेद पाठ ......
असंख्य जोग मनि रहहि उदास ....
असंख्य मोनि लिव लाइ तार ....
कुदरति कवण कहा बीचारु ......
तूं सदा सलामत निरंकार .....
आदि गुरु साहिब कह रहे हैं ------
जप , तप , भक्ति करता अनेक .....
वेद शास्त्रों के पाठक अनेक ......
समभाव खोजी अनेक ......
मौन खोजी भी अनेक .....
तूं तो सनातन निरंकार है ---
मैं तेरे को कैसे बिचारु ?
भक्त ; एक अपरा भक्त तब प्रभु से वार्तालाप करता है जब वह परा भक्ति के आयाम से
वापस अपरा में आ गया होता है । आदि गुरु साहिब भी यहाँ प्रभु से प्रश्न कर रहे हैं ।
हम - आप अपने सहयोगियों से राय लेते हैं , उनसे पूछते हैं लेकीन भक्त प्रभु को
अपना दोस्त समझता है , अपनी प्रेमिका समझता है [ सूफीलोग ] और उसी से
वह वार्तालाप करता रहता है । यहाँ आप गीता के निम्न सूत्रों को यदि देखें तो आप को
आनंद मिल सकता है .......
गीता सूत्र - 3.6 - 3.7, 3.34, 2.67 - 2.68, 13.2, 13.24
===== एक ओंकार =====
Wednesday, May 5, 2010
जपजी साहिब - 16
जपजी साहिब - 16 में कुल चौबीस पंक्तियाँ हैं जिनमें से चार को यहाँ लिया जा रहा है ।
पंचा का गुरु एकु धिआनु ....
जीअ जाति रंगा के नाव ...
सभना लिखिआ बुडी कमाल ....
एहु लेखा लिखि जानै कोई ॥
सत गुरूजी साहिब कहते हैं -----
सत पुरुष का एक गुरु है - ध्यान ....
जीव - जातियां हैं , अनेक --
सब का रंग है अनेक , लिकिन --
सब का मूल है , एक , लिकिन --
इस रहस्य को कौन जानता है ?
ध्यान क्या है ?
ध्यान सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति होती है -- गीता सूत्र .... 4.38 और ध्यान के माध्यम से प्रभु का बोध होता है ,ह्रदय में -- गीता सूत्र .... 13.24
ज्ञान क्या है ? वह जो यह बताये की क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ क्या हैं , ज्ञान है .... गीता सूत्र - 13.2
ध्यान वह है जिसका सम्बन्ध ज्ञान से है और ज्ञान का सम्बन्ध प्रभु से है ।
ध्यान एक मार्ग है , जिस पर चलते रहनें वाला एक दिन अन्दर से पूर्ण रूप से रिक्त
हो जाता है और अन्तः करन की रिक्तता में मन - बुद्धि में निर्विकार ऊर्जा प्रवाहित होती है
जो प्रभु से भर देती है - अन्तः करन को ।
प्रभु एक है , जो गुनातीत है लेकीन मन - बुद्धि स्तर पर वह अनेक रूपों में दिखता है ।
गीता कहता है ------
एक बुद्धि में एक समय भोग - भगवान् दोनों को नहीं रखा जा सकता -
गीता सूत्र .... 2.42 - 2.44 तक ।
ब्रह्म की पकड़ मन - बुद्धि के बश में नहीं है -- गीता सूत्र - 12.3 - 12.4 तक ।
==== एक ओंकार =====
Tuesday, May 4, 2010
जपजी साहिब - 15
मन्नै पावहि मोखु दुआरु
मंनै परवारै साधारु
मंनै तरै तारे गुरु सिख
मंनै नानक भवहि न भिख
ऐसा नाम निरंजन होई
जे को मंनि जानै मनि कोई ॥
परम प्रीति में डूबे गुरु की उससे वाणी में उनका अपना अनुभव छिपा हुआ है , जो उस से एक लय हो गया , वह
उसे पा लेता है , जिसकी उसे तलाश है , जनम - जनम से, और उसे पा कर तृप्त हो जाता है । गुरूजी कह रहे हैं --
प्रभु का नाम निरंजन होई .....
जो कोई उसे ले मन बैठाई ....
प्रभु प्रेमी ना होई भिखारु ....
सुमीर - सुमीर सब उतरही पारु ....
परम प्रीति का रंग है ऐसा --
एक बार जो चढ़े --
वह चढ़ा ही रहे ॥
साधना में तीन तत्त्व हैं ; प्रभु , गुरु और सिख । प्रभु धेय है , गुरु मार्ग है और सिख वह परम प्रेमी होता है जो
स्वयं को अपनें गुरु को समर्पित करदेता है । प्रभु परम सत्य है , परम सत्य की ओर रुख को करवाता है , गुरु और
सिख वह है जो गुरु के हर इशारे को समझता है और उस पर अमल करता है ।
कहते हैं ---- पारस एक पत्थर है जिसके संपर्क में लोहा आ कर सोना बन जाता है लेकीन यदि एक टोकरा
गोबर को पारस के पास रख दिया जाए तो क्या वह गोबर भी सोना बन जाएगा ? जी नहीं , पारस केवल
लोहे को सोना बनाता है । गुरु है पारस और सिख है - लोहा । यहाँ यह समझना जरुरी है की -----
गुरु तो गुरु ही रहता है जैसे पारस लेकीन सोना बन नें के लिए चेले को लोहा बनना ही पड़ेगा , यदि वह
गोबर है तो परम गुरु कुछ नहीं कर पायेगा ।
===== एक ओंकार =====
मंनै परवारै साधारु
मंनै तरै तारे गुरु सिख
मंनै नानक भवहि न भिख
ऐसा नाम निरंजन होई
जे को मंनि जानै मनि कोई ॥
परम प्रीति में डूबे गुरु की उससे वाणी में उनका अपना अनुभव छिपा हुआ है , जो उस से एक लय हो गया , वह
उसे पा लेता है , जिसकी उसे तलाश है , जनम - जनम से, और उसे पा कर तृप्त हो जाता है । गुरूजी कह रहे हैं --
प्रभु का नाम निरंजन होई .....
जो कोई उसे ले मन बैठाई ....
प्रभु प्रेमी ना होई भिखारु ....
सुमीर - सुमीर सब उतरही पारु ....
परम प्रीति का रंग है ऐसा --
एक बार जो चढ़े --
वह चढ़ा ही रहे ॥
साधना में तीन तत्त्व हैं ; प्रभु , गुरु और सिख । प्रभु धेय है , गुरु मार्ग है और सिख वह परम प्रेमी होता है जो
स्वयं को अपनें गुरु को समर्पित करदेता है । प्रभु परम सत्य है , परम सत्य की ओर रुख को करवाता है , गुरु और
सिख वह है जो गुरु के हर इशारे को समझता है और उस पर अमल करता है ।
कहते हैं ---- पारस एक पत्थर है जिसके संपर्क में लोहा आ कर सोना बन जाता है लेकीन यदि एक टोकरा
गोबर को पारस के पास रख दिया जाए तो क्या वह गोबर भी सोना बन जाएगा ? जी नहीं , पारस केवल
लोहे को सोना बनाता है । गुरु है पारस और सिख है - लोहा । यहाँ यह समझना जरुरी है की -----
गुरु तो गुरु ही रहता है जैसे पारस लेकीन सोना बन नें के लिए चेले को लोहा बनना ही पड़ेगा , यदि वह
गोबर है तो परम गुरु कुछ नहीं कर पायेगा ।
===== एक ओंकार =====
Monday, May 3, 2010
जपजी साहिब - 14
मंनै मारगि ठाक न पाई .....
मंनै पति सिउ परगटु जाई .....
मंनै मगु न चलै पंथु .....
मंनै धरम सेती सनबन्धु ....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानै मनि कोई ॥
आदि गुरूजी साहिब कहते हैं -----
श्रद्धावान को कोई रुकावट नहीं है ---
उसके लिए प्रभु निरंकार नही रह पाता --- देखिये गीता - 6.30 को भी
वह अनेन पंथों पर नहीं चलता -----
वह धर्म की राह पर होता है ----
वह जानता है ....
उसका नाम निरंजन होई ....
वह प्रभु को मन से धारण ॥
दो एक कदाम आप चलें , दो एक कदम मैं चलनें की कोशिश में हूँ , जहां हम दोनों मिलेंगे वह मिलन होगा ,
जपजी और गीता का ।
गीता में अर्जुन का छठा प्रश्न है ---- प्रभु ! मैं अपनें अशांत मन को कैसे शांत करूँ ?
प्रभु इसका उत्तर देते हैं - गीता सूत्र 6.26 - 6.36 तक में ।
मनुष्य के पास एक राह है जिस से एक तरफ भोग दिखता है और दूसरी ओर योग की धारा बहती हुई दिखती है ।
==== एक ओंकार सत नाम ====
Sunday, May 2, 2010
जपजी साहिब - 13
मंनै सुरति होवै मनि बुधि .....
मंनै सगल भवन की सुधि .....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानै मनि कोइ ॥
आदि गुरूजी साहिब कह रहे हैं ----
जो मन में उसे बिठाए .....
वह ग्यानी बनजाए .....
वह जाने सबै भवन को ....
वह जाने .....
उसका नाम निरंजन होवै ॥
गुरूजी साहिब कहते हैं .......
वह जो प्रभु केन्द्रित है , ग्यानी है और गीता कहता है ------
क्षेत्र - क्षेत्रग्य के बोध वाला , ग्यानी होता है । क्षेत्र का अर्थ हैं अपरा एवं परा प्रकृतियों का योग - हमारा स्थूल देह जो सविकार है और क्षेत्रग्य का अर्थ है जीवात्मा जो परमात्मा ही है और निर्विकार है ।
आदि गुरु शंकाराचार्य काशी में रुके हुए थे । एक दिन गंगा स्नान करके पौडियों से ऊपर
आ रहे थे की उनको किसी नीच नें अनजानें में छू दिया । शंकराचार्य जी कहते हैं -
यह तूं नें क्या कर दिया ? अब मुझे पुनः स्नान करना पड़ेगा ।
उस ब्यक्ति नें कहा - गुरुजी मैं कई दिनों से आपका प्रवचन सुन रहा हूँ ,
आप कहते हैं -- यह देह कभी निर्मल हो नहीं सकता और जीवात्मा कभी मलीन नहीं हो सकती , यदि यह बात जो आप की कही है , सत्य है , फिर आप दुबारा स्नान करके किसको निर्मल बनाना चाहते हैं ?
आदि गुरु जी की यह दूसरी बार हार थी और लोग कहते है की - आदि गुरु के अहंकार को तोड्नें के लिए स्वयं शिव ही वह ब्यक्ति बन कर प्रकट हुए थे ।
गुणों के तत्वों से अछूता रहनें के लिए , भोग तत्वों से अछूता रहनें के लिए केवल एक मार्ग है जिस पर चलना ही पड़ता है और वह है - प्रभु को अपनें जीवन का केंद्र बनाना ।
गीता का प्रभु साकार है , निराकार है , भावों में है , निर्भाव है , वह सब में है , वह सब के परे है , वह सभी
जड़ - चेतन भी है । गीता का प्रभु एक माध्यम है जो सीमा रहित अनंत है , जो सगुनी - निर्गुणी है , जिसमें
और जिस से ब्रह्माण्ड है , टाइम - स्पेस है और वह सब है जो आज है , जो कल नहीं रहेगा और जिसमें सब हो
रहे हैं , समाप्त हो रहे है और हैं भी । गीता का परमेश्वर एक साक्षी है , एक द्रष्टा है वह सब का श्रोत है ।
==== एक ओंकार सत नाम =====
Saturday, May 1, 2010
जपजी साहिब - 12
मंने की गति कही न जाई ....
जे को कहै पिछे पछुताई .....
कागदि कलम न लिखणहारू ....
मंगे का बहि करनि बिचारु ....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानए मनि कोई ॥
ये शब्द आदि गुरु जी के हैं जो शब्दों से शब्दातीत को पकडनें की बात कह रहे हैं ।
माननें का अर्थ हैं श्रद्धा से परिपूर्ण होना और परम प्रीति में दुबकी लेते रहना ।
आदि गुरु कहते हैं -----
भक्त की गति कही न जाए .....
जो कहे वह पछताए .....
सत प्रेमी को कैसे पायें ....
कहाँ है वह कागज़ ...
कहाँ है वह कलम और ....
कहाँ है वह पंडित जो ....
लेखे उसके रंग - ढंग को ...
उसका नाम निरंजन होई ॥
भाषा से भाव को ब्यक्त करना कठीन है और असंभव भी । सीमातीत को सीमा में बाधना क्या
संभव है ? जी नहीं । क्या पता हमारे संग , हमारे घर में निराकार प्रभु का साकार रूप हो पर हम उसे कैसे पहचानें ? क्या हम उसकी आवाज को पहचानते हैं ? क्या हम उसके रूप को पहचानते हैं ?
क्या हम उनकी आवाज को पहचानते हैं ? यदि वह हमारे संग हो भी तो हम उसे कैसे पहचानेंगे ?
प्रभु को सभी चाहते हैं , प्रभु को सभी अपनें - अपनें घर में रखना चाहते हैं लेकीन कोई उसको पहचानें की कला को नहीं जानना चाहता । प्रभु को कोई कैसे खोज सकता है ? प्रभु अपनें भक्त की तलाश में होता है ।
संसार में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके दिमाक में किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो ,
सभी प्रभु को अपनें घर में बिठाना चाहते हैं और प्रभु के सम्बन्ध में भ्रमित भी हैं , भ्रम के साथ प्रभु मय होना
कैसे संभव है ?
गीता कहता है .... भय के साथ वैराग्या वस्था नहीं मिलती और बिना वैराग्य , प्रभु की छाया नहीं मिलती ।
===== एक ओंकार सत नाम ======
जे को कहै पिछे पछुताई .....
कागदि कलम न लिखणहारू ....
मंगे का बहि करनि बिचारु ....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानए मनि कोई ॥
ये शब्द आदि गुरु जी के हैं जो शब्दों से शब्दातीत को पकडनें की बात कह रहे हैं ।
माननें का अर्थ हैं श्रद्धा से परिपूर्ण होना और परम प्रीति में दुबकी लेते रहना ।
आदि गुरु कहते हैं -----
भक्त की गति कही न जाए .....
जो कहे वह पछताए .....
सत प्रेमी को कैसे पायें ....
कहाँ है वह कागज़ ...
कहाँ है वह कलम और ....
कहाँ है वह पंडित जो ....
लेखे उसके रंग - ढंग को ...
उसका नाम निरंजन होई ॥
भाषा से भाव को ब्यक्त करना कठीन है और असंभव भी । सीमातीत को सीमा में बाधना क्या
संभव है ? जी नहीं । क्या पता हमारे संग , हमारे घर में निराकार प्रभु का साकार रूप हो पर हम उसे कैसे पहचानें ? क्या हम उसकी आवाज को पहचानते हैं ? क्या हम उसके रूप को पहचानते हैं ?
क्या हम उनकी आवाज को पहचानते हैं ? यदि वह हमारे संग हो भी तो हम उसे कैसे पहचानेंगे ?
प्रभु को सभी चाहते हैं , प्रभु को सभी अपनें - अपनें घर में रखना चाहते हैं लेकीन कोई उसको पहचानें की कला को नहीं जानना चाहता । प्रभु को कोई कैसे खोज सकता है ? प्रभु अपनें भक्त की तलाश में होता है ।
संसार में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके दिमाक में किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो ,
सभी प्रभु को अपनें घर में बिठाना चाहते हैं और प्रभु के सम्बन्ध में भ्रमित भी हैं , भ्रम के साथ प्रभु मय होना
कैसे संभव है ?
गीता कहता है .... भय के साथ वैराग्या वस्था नहीं मिलती और बिना वैराग्य , प्रभु की छाया नहीं मिलती ।
===== एक ओंकार सत नाम ======
गीता अमृत - 83
गीता दर्शन - 1
यहाँ हम देखनें जा रहे है , गीता के कुछ सत बचनों को , आप तन ,
मन एवं बुद्धि से आमंत्रित हैं -----
[क] चिंता करता का प्रतिबिम्ब है ......
[ख] करता भाव अहंकार की छाया है -- गीता - 3.27
[ग] चिंता वर्तमान हो छीन लेती है ---
[घ] वर्तमान जीवन के रूप में प्रभु का प्रसाद है .....
[च] हमारा वर्तमान धीरे - धीरे सरक रहा है .....
[छ] जो यह सोचता है की वर्तमान सरक रहा है ,वह चिंता में होता है ....
[ज] जो यह समझता है की वर्तमान सरक रहा है वह सम भाव में रहता हुआ
प्रभु में लींन रहता है ....
[झ] वर्तमान को स्वीकारना सत है और वर्तमान से भागना , अज्ञान है .....
[झ-क] योगी पल - पल जीता है और भोगी की कल की सोच उसके
आज को नरक बना देती है ॥
==== ॐ =======
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