मंने की गति कही न जाई ....
जे को कहै पिछे पछुताई .....
कागदि कलम न लिखणहारू ....
मंगे का बहि करनि बिचारु ....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानए मनि कोई ॥
ये शब्द आदि गुरु जी के हैं जो शब्दों से शब्दातीत को पकडनें की बात कह रहे हैं ।
माननें का अर्थ हैं श्रद्धा से परिपूर्ण होना और परम प्रीति में दुबकी लेते रहना ।
आदि गुरु कहते हैं -----
भक्त की गति कही न जाए .....
जो कहे वह पछताए .....
सत प्रेमी को कैसे पायें ....
कहाँ है वह कागज़ ...
कहाँ है वह कलम और ....
कहाँ है वह पंडित जो ....
लेखे उसके रंग - ढंग को ...
उसका नाम निरंजन होई ॥
भाषा से भाव को ब्यक्त करना कठीन है और असंभव भी । सीमातीत को सीमा में बाधना क्या
संभव है ? जी नहीं । क्या पता हमारे संग , हमारे घर में निराकार प्रभु का साकार रूप हो पर हम उसे कैसे पहचानें ? क्या हम उसकी आवाज को पहचानते हैं ? क्या हम उसके रूप को पहचानते हैं ?
क्या हम उनकी आवाज को पहचानते हैं ? यदि वह हमारे संग हो भी तो हम उसे कैसे पहचानेंगे ?
प्रभु को सभी चाहते हैं , प्रभु को सभी अपनें - अपनें घर में रखना चाहते हैं लेकीन कोई उसको पहचानें की कला को नहीं जानना चाहता । प्रभु को कोई कैसे खोज सकता है ? प्रभु अपनें भक्त की तलाश में होता है ।
संसार में शायद ही कोई ऐसा मिले जिसके दिमाक में किसी न किसी रूप में परमात्मा की सोच न हो ,
सभी प्रभु को अपनें घर में बिठाना चाहते हैं और प्रभु के सम्बन्ध में भ्रमित भी हैं , भ्रम के साथ प्रभु मय होना
कैसे संभव है ?
गीता कहता है .... भय के साथ वैराग्या वस्था नहीं मिलती और बिना वैराग्य , प्रभु की छाया नहीं मिलती ।
===== एक ओंकार सत नाम ======
Saturday, May 1, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment