Sunday, May 16, 2010

गीता गुण रहस्य भाग - 06


गीता में क्षेत्रज्ञ कौन है ?

गीता श्लोक - 13.2 कहता है ----
क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का बोध , ज्ञान है । क्षेत्र हमारा सविकार देह है और क्षेत्रज्ञ है निर्विकार प्रभु ।
गीता सूत्र - 13.15 में प्रभु अर्जुन को बताते हैं - हे अर्जुन प्रभु सब के करीब है , दूर है , सब के बाहर है , सब के
अन्दर है और सभी जड़ - चेतन भी वही है । गीता में प्रभु यह भी कहते हैं -----
मैं अमृत हूँ , मैं मृत्यु हूँ , मैं महा काल हूँ , मैं सत हूँ और मैं ही असत भी हूँ एवं मैं न सत हूँ और न ही असत हूँ
[ देखिये गीता -9.19 , 13.12 , 11.37 ]

J Krishnamurthy कहते हैं --- Truth is pathless journey और गीत कहता है --- कोई ऐसा सत नहीं
जिसके चारो तरफ असत का छिलका न चढ़ा हो [ गीता - 2।16 , 18.40 ] , जब तक असत का बोध नहीं होता ,
सत की पहचान करना कठिन है । प्रभु कोई बिषय नही है जिसको किताबों के अध्ययन से प्राप्त किया जा
सके , प्रभु की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की अनुभूति है [ गीता - 12.3 - 12.4 ]
क्षेत्रज्ञ की अनुभति कही भी किसी भी समय और किसी भी स्थिति में हो सकती है
यदि क्षेत्र की अनुभूति
पक्की हो और -----
** भोग तत्वों का बोध हो ......
** भोग तत्वों के सम्मोहन का बोध हो ......
** राग के आकर्षण का बोध हो .....
** काम के सम्मोहन का बोध हो .....
** अहंकार के पैनेपन का बोध हो ....
और जब ऐसा होता है तब -----
प्रभु [ क्षेत्रज्ञ ] को खोजना नही पड़ता ।

==== ॐ ======

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