Monday, May 3, 2010

जपजी साहिब - 14



मंनै मारगि ठाक न पाई .....

मंनै पति सिउ परगटु जाई .....

मंनै मगु न चलै पंथु .....

मंनै धरम सेती सनबन्धु ....

ऐसा नाम निरंजन होई .....

जे को मंनि जानै मनि कोई ॥



आदि गुरूजी साहिब कहते हैं -----

श्रद्धावान को कोई रुकावट नहीं है ---

उसके लिए प्रभु निरंकार नही रह पाता --- देखिये गीता - 6.30 को भी

वह अनेन पंथों पर नहीं चलता -----

वह धर्म की राह पर होता है ----

वह जानता है ....

उसका नाम निरंजन होई ....

वह प्रभु को मन से धारण ॥

दो एक कदाम आप चलें , दो एक कदम मैं चलनें की कोशिश में हूँ , जहां हम दोनों मिलेंगे वह मिलन होगा ,

जपजी और गीता का ।

गीता में अर्जुन का छठा प्रश्न है ---- प्रभु ! मैं अपनें अशांत मन को कैसे शांत करूँ ?

प्रभु इसका उत्तर देते हैं - गीता सूत्र 6.26 - 6.36 तक में ।

मनुष्य के पास एक राह है जिस से एक तरफ भोग दिखता है और दूसरी ओर योग की धारा बहती हुई दिखती है ।

==== एक ओंकार सत नाम ====


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