मंनै मारगि ठाक न पाई .....
मंनै पति सिउ परगटु जाई .....
मंनै मगु न चलै पंथु .....
मंनै धरम सेती सनबन्धु ....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानै मनि कोई ॥
आदि गुरूजी साहिब कहते हैं -----
श्रद्धावान को कोई रुकावट नहीं है ---
उसके लिए प्रभु निरंकार नही रह पाता --- देखिये गीता - 6.30 को भी
वह अनेन पंथों पर नहीं चलता -----
वह धर्म की राह पर होता है ----
वह जानता है ....
उसका नाम निरंजन होई ....
वह प्रभु को मन से धारण ॥
दो एक कदाम आप चलें , दो एक कदम मैं चलनें की कोशिश में हूँ , जहां हम दोनों मिलेंगे वह मिलन होगा ,
जपजी और गीता का ।
गीता में अर्जुन का छठा प्रश्न है ---- प्रभु ! मैं अपनें अशांत मन को कैसे शांत करूँ ?
प्रभु इसका उत्तर देते हैं - गीता सूत्र 6.26 - 6.36 तक में ।
मनुष्य के पास एक राह है जिस से एक तरफ भोग दिखता है और दूसरी ओर योग की धारा बहती हुई दिखती है ।
==== एक ओंकार सत नाम ====
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