Thursday, May 6, 2010
जपजी साहिब - 17
असंख्य जप असंख्य भाऊ ......
असंख्य पूजा असंख्य तप ताऊ ....
असंख्य गरंथ मुखि वेद पाठ ......
असंख्य जोग मनि रहहि उदास ....
असंख्य मोनि लिव लाइ तार ....
कुदरति कवण कहा बीचारु ......
तूं सदा सलामत निरंकार .....
आदि गुरु साहिब कह रहे हैं ------
जप , तप , भक्ति करता अनेक .....
वेद शास्त्रों के पाठक अनेक ......
समभाव खोजी अनेक ......
मौन खोजी भी अनेक .....
तूं तो सनातन निरंकार है ---
मैं तेरे को कैसे बिचारु ?
भक्त ; एक अपरा भक्त तब प्रभु से वार्तालाप करता है जब वह परा भक्ति के आयाम से
वापस अपरा में आ गया होता है । आदि गुरु साहिब भी यहाँ प्रभु से प्रश्न कर रहे हैं ।
हम - आप अपने सहयोगियों से राय लेते हैं , उनसे पूछते हैं लेकीन भक्त प्रभु को
अपना दोस्त समझता है , अपनी प्रेमिका समझता है [ सूफीलोग ] और उसी से
वह वार्तालाप करता रहता है । यहाँ आप गीता के निम्न सूत्रों को यदि देखें तो आप को
आनंद मिल सकता है .......
गीता सूत्र - 3.6 - 3.7, 3.34, 2.67 - 2.68, 13.2, 13.24
===== एक ओंकार =====
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