Thursday, May 20, 2010

गीता गुण रहस्य भाग - 10

तामस गुण - तत्त्व [ मोह , भय , आलस्य ]

गीता का प्रारम्भ धृतराष्ट्र जी के श्लोक से होता है और अध्याय एक के कुल 47 श्लोकों में पहला श्लोक धृतराष्ट्र जी का तो है ही , अन्य 46 श्लोकों में 22 श्लोक अर्जुन के हैं और 24 श्लोक संजयजी के हैं ।
परम श्री कृष्ण अध्याय एक में अर्जुन के श्लोक 1.22 - 1.47 तक को जब सुनते हैं तब उनको यह स्पष्ट हो जाता है की
अर्जुन को मोह हो गया है । अर्जुन अपनें इन श्लोकों में कहते हैं ----
[क] मेरे शरीर में कम्पन हो रहा है .....
[ख] शरीर में खुजली हो रही है ......
[ग] गला सूख रहा है ..... आदि - आदि
अर्जुन यह भूल रहे हैं की वे यह बातें किस से कह रहे हैं ? इन बातों को सुननें वाला एक सांख्य - योगी है और
सांख्य की बुनियाद है - तर्क [ logic ] ।
यहाँ आप गीता के श्लोक - 2.1 , 2.52, 2.71, 4.10, 4.23 , 7.27 , 14.8 , 14.17 , 18.72 - 18.73 को देखें ।
परम श्री कृष्ण अर्जुन की बातों को सुननें के बाद कहते हैं [ गीता - 2।1 ]- असमय में तेरे को मोह कैसे हो गया ?
परम श्री कृष्ण आगे कहते हैं -----
[क] अर्जुन, मोह के साथ बैराग्य नहींहो सकता और तूं कहता है बैरागी बननें की बात ।
[ख] मोह में मन - बुद्धि अस्थिर होते हैं , बुद्धि में अज्ञान समाया हुआ होता है और अज्ञान में असत में सत
दिखता है ।
मोह क्या है ?
जो है आज लेकीन ऐसा भ्रम हो रहा हो की यह कल हमारे पास न होगा , तब उस मनुष्य के अन्दर उस बस्तु के लिए मोह पैदा होता है । मोह में आन्तातिक ऊर्जा सिकुडती है , अहंकार सिकुड़ कर परिधि से केंद्र की ओर चला जाता है और मोह प्रभावित ब्यक्ति समर्पण का नाटक करता है लेकीन समर्पण भाव उसमें आता नहीं ।
मोह उस ब्यक्ति के लिए खतरा तो है ही जो इस से प्रभावित है लेकीन उस ब्यक्ति के लिए भी खतरा होता है जो ऐसे
ब्यक्ति के साथ होता है । मोह वाला ब्यक्ति गिरगिट की तरह हर पल अपना रंग बदलता रहता है क्योंकि उसका
मन एवं बुद्धि अस्थिर होते हैं ।
सभी गुण तत्त्व जैसे -----
काम
कामना
क्रोध
लोभ
मोह
भय
आलस्य और
अहंकार मजबूत बंधन हैं जो भोग से बाहर जानें नहीं देते और प्रभु भोग में होता नहीं ।
भोग सविकार
मन - बुद्धि सीमा में होता है और प्रभु का बोध निर्विकार मन - बुद्धि से होता है ।

==== परम श्री कृष्ण ======

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