Sunday, May 2, 2010

जपजी साहिब - 13


मंनै सुरति होवै मनि बुधि .....
मंनै सगल भवन की सुधि .....
ऐसा नाम निरंजन होई .....
जे को मंनि जानै मनि कोइ ॥

आदि गुरूजी साहिब कह रहे हैं ----
जो मन में उसे बिठाए .....
वह ग्यानी बनजाए .....
वह जाने सबै भवन को ....
वह जाने .....
उसका नाम निरंजन होवै ॥

गुरूजी साहिब कहते हैं .......
वह जो प्रभु केन्द्रित है , ग्यानी है और गीता कहता है ------
क्षेत्र - क्षेत्रग्य के बोध वाला , ग्यानी होता है । क्षेत्र का अर्थ हैं अपरा एवं परा प्रकृतियों का योग - हमारा स्थूल देह जो सविकार है और क्षेत्रग्य का अर्थ है जीवात्मा जो परमात्मा ही है और निर्विकार है ।

आदि गुरु शंकाराचार्य काशी में रुके हुए थे । एक दिन गंगा स्नान करके पौडियों से ऊपर
आ रहे थे की उनको किसी नीच नें अनजानें में छू दिया । शंकराचार्य जी कहते हैं -
यह तूं नें क्या कर दिया ? अब मुझे पुनः स्नान करना पड़ेगा ।
उस ब्यक्ति नें कहा - गुरुजी मैं कई दिनों से आपका प्रवचन सुन रहा हूँ ,
आप कहते हैं -- यह देह कभी निर्मल हो नहीं सकता और जीवात्मा कभी मलीन नहीं हो सकती , यदि यह बात जो आप की कही है , सत्य है , फिर आप दुबारा स्नान करके किसको निर्मल बनाना चाहते हैं ?
आदि गुरु जी की यह दूसरी बार हार थी और लोग कहते है की - आदि गुरु के अहंकार को तोड्नें के लिए स्वयं शिव ही वह ब्यक्ति बन कर प्रकट हुए थे ।

गुणों के तत्वों से अछूता रहनें के लिए , भोग तत्वों से अछूता रहनें के लिए केवल एक मार्ग है जिस पर चलना ही पड़ता है और वह है - प्रभु को अपनें जीवन का केंद्र बनाना ।
गीता का प्रभु साकार है , निराकार है , भावों में है , निर्भाव है , वह सब में है , वह सब के परे है , वह सभी
जड़ - चेतन भी है । गीता का प्रभु एक माध्यम है जो सीमा रहित अनंत है , जो सगुनी - निर्गुणी है , जिसमें
और जिस से ब्रह्माण्ड है , टाइम - स्पेस है और वह सब है जो आज है , जो कल नहीं रहेगा और जिसमें सब हो
रहे हैं , समाप्त हो रहे है और हैं भी । गीता का परमेश्वर एक साक्षी है , एक द्रष्टा है वह सब का श्रोत है ।

==== एक ओंकार सत नाम =====

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