Monday, May 17, 2010

गीता गुण रहस्य भाग - 07

राजस गुण तत्त्व

[क] - आसक्ति

आसक्ति क्या है ? इस प्रश्न के सम्बन्ध में देक्खिये गीता के इन श्लोकों को ........
2.48 , 2.58 - 2.62 , 2.64 , 2.67 , 2.68 , 3.6 , 3.7 , 3.19 , 3.20
3.26 ,3.34 , 4.20 ,4.22 , 5.10 , 5.11 , 5.21 , 6.6 , 6.8 , 6.24
8.11 , 13.8 , 14.7, 18.6, 18.11, 18.49, 18.50

बिषय , इन्द्रिय , मन , बुद्धि का एक समीकरण है । पांच ज्ञान इन्द्रियों के अपनें -अपनें बिषय हैं जो शरीर के बाहर हैं । इन्द्रियों का स्वभाव है , अपनें - अपनें बिषयों में भ्रमण करना । जब कोई इन्द्रिय अपनें बिषय में पहुंचती है तब उस बिषय में स्थित राग - द्वेष से वह बच नहीं पाती और उनसे सम्मोहित हो कर मन को राजस गुण से सम्बंधित सूचना भेजती है । इन्द्रिय - बिषय के संयोग से मन में वह भाव पैदा होता है जो गुण मन पर प्रभावी होता है । इन्द्रिय - बिषय संयोग से मन में जो ऊर्जा पैदा होती है और जिसमें उस बिषय को भोगनें की भावना होती है, वह है आसक्ति । आसक्ति मन की ऊर्जा है जो इन्द्रिय - बिषय के संयोग से एवं गुणों के प्रभाव में पैदा होती है ।

आसक्ति से कामना उठती है , कामना टूटनें पर क्रोध पैदा होता है और क्रोध अज्ञान का बीज है ।
तीन प्रकार के गुण हैं और तीन प्रकार की आसक्ति होती है । सात्विक आसक्ति में ब्यक्ति प्रभु से जुड़ता है , राजस
आसक्ति में भोग से जुड़ता है और तामस आसक्ति में मोह बंधन में फसता है ।
आसक्ति वह पहला तत्त्व है जहां से कर्म योग प्रारम्भ होता है ।
वह जो आसक्ति को साध लिया ..........
कामना मुक्त हो गया -------
क्रोध मुक्त हो गया .......
भोग मुक्त हो गया ........
योगी हो गया जैसे ----
राजा जनक एवं ----
आसक्ति रहित कर्म से कर्म की सिद्धि मिलती है , ऎसी सिद्धि जो -----
ज्ञान - योग की परा निष्ठा होती है ।

===== ॐ ======

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