Tuesday, May 11, 2010

जपजी साहिब - 21


सुणिआ मंनिआ मनि कीता भाऊ
अंतर्गति तीरथि मलि नाउ
जा करता सिरठी कउ साजे
आपे जानै सोई
किव करि आखा किव सालाही
किउ बरनी किव जाणा ॥

जपजी के माध्यम से आदि गुरूजी साहिब कह रहे हैं -------

सृष्टि का रचनाकरता , करता पुरुष .....
जो सबकी सुध रखता है .....
जो उसे बैठाए , मन में .....
वह स्वयं तीर्थ बन जाता है ......
उसे -----
कैसे ब्यक्त करूँ -----
कैसे गाउ .....
और -----
कैसे जानू ॥

भक्त - एक परा भक्त - एक भक्त जो साकार उपासना से निराकार में पहुच गया हो ,
वह एक कटी पतंग की तरह बाहर - बाहर से दिखता है लेकीन अन्दर से वह
शांत झील की तरह शांत रहता हुआ कस्तूरी मृग की तरह प्रभु के चारों तरफ नाचता रहता है । ऐसा भक्त बाहर से पागल सा दिखता है लेकीन होता है ,
त्रिकाल दर्शी
आदि गुरु परा भक्त थे , जो कहना चाहते थे कह न पाए , जो देखना चाहते थे , उसे देखे जरुर पर ब्यक्त न कर पाए ।
ऐसे गुरु , ऐसे भक्त जो प्रभु से परिपूर्ण होते हैं , वे कई सदियों के बाद प्रकट होते हैं ।
धन्य था वह वक़्त जब भारत भूमि पर -----
नानकजी साहिब .....
मीरा .....
और कबीरजी साहिब एक साथ रहे ॥

==== एक ओंकार =====

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