Tuesday, May 4, 2010

जपजी साहिब - 15

मन्नै पावहि मोखु दुआरु
मंनै परवारै साधारु
मंनै तरै तारे गुरु सिख
मंनै नानक भवहि न भिख
ऐसा नाम निरंजन होई
जे को मंनि जानै मनि कोई ॥

परम प्रीति में डूबे गुरु की उससे वाणी में उनका अपना अनुभव छिपा हुआ है , जो उस से एक लय हो गया , वह
उसे पा लेता है , जिसकी उसे तलाश है , जनम - जनम से, और उसे पा कर तृप्त हो जाता है । गुरूजी कह रहे हैं --
प्रभु का नाम निरंजन होई .....
जो कोई उसे ले मन बैठाई ....
प्रभु प्रेमी ना होई भिखारु ....
सुमीर - सुमीर सब उतरही पारु ....
परम प्रीति का रंग है ऐसा --
एक बार जो चढ़े --
वह चढ़ा ही रहे ॥

साधना में तीन तत्त्व हैं ; प्रभु , गुरु और सिख । प्रभु धेय है , गुरु मार्ग है और सिख वह परम प्रेमी होता है जो
स्वयं को अपनें गुरु को समर्पित करदेता है । प्रभु परम सत्य है , परम सत्य की ओर रुख को करवाता है , गुरु और
सिख वह है जो गुरु के हर इशारे को समझता है और उस पर अमल करता है ।

कहते हैं ---- पारस एक पत्थर है जिसके संपर्क में लोहा आ कर सोना बन जाता है लेकीन यदि एक टोकरा
गोबर को पारस के पास रख दिया जाए तो क्या वह गोबर भी सोना बन जाएगा ? जी नहीं , पारस केवल
लोहे को सोना बनाता है । गुरु है पारस और सिख है - लोहा । यहाँ यह समझना जरुरी है की -----
गुरु तो गुरु ही रहता है जैसे पारस लेकीन सोना बन नें के लिए चेले को लोहा बनना ही पड़ेगा , यदि वह
गोबर है तो परम गुरु कुछ नहीं कर पायेगा ।

===== एक ओंकार =====

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