Saturday, December 5, 2009

गीता-ज्ञान ....15

नादत्ते कस्यचित्पापं न चैव सुकृतं विभु:।
अज्ञानेन आवृतं ज्ञानं तेन मुह्यन्ति जन्तवः ॥ गीता-5.15
परमात्मा किसी के पाप कर्मो तथा अच्छे कर्मों को ग्रहण नहीं करता , जिनका ज्ञान अज्ञान से ढका हुआ है , वे ऐसा नहीं समझते ।
गीता का यह श्लोक जितना पारदर्शी है क्या कोई और इतना पारदर्शी हो सकता है ? यह श्लोक एक तरफ़ पाप -कर्म करनें वालों के लिए प्रीतिकर है और दूसरी ओर सही राह पर चलनें वालों के लिए प्रीतिकर नहीं दिखता ।
आसुरी प्रकृति के लोग इस सूत्र का अर्थ लगायेगे ---जब परमात्मा हमारे पाप कर्मों से प्रभावित नहीं होता तो हमें और किसकी डर है और अच्छे कर्म करनें वाले जिनकी नजरें स्वर्ग - प्राप्ति पर टिकी होती हैं , उनको इस सूत्र से कुछ बेचैनी अवश्य होगी ।
गीता का परमेश्वर किसी को बंधक बना कर नहीं रखता , वह कुछ करता नहीं , वह सुनता नहीं , वह सुनता नहीं , वह मात्र द्रष्टा है । दो प्रकार के लोग हैं; एक तो दर्शक हैं और दूसरे द्रष्टा जो दुर्लभ हैं । जब कोई भाव के साथ बिषय से जुड़ता है तो वह दर्शक होता है और जो भावातीत की स्थिति में बिषयों से जुड़ता है , वह है - द्रष्टा ।
गीता का परमात्मा हीरे के मुकुट से खुश नहीं होता , और न हमारी दरिद्रता पर रोता है , गीता का परमात्मा एक माध्यम है जो गुनातीत , भावातीत , सीमा रहित , स्थिर , सर्वत्र , सनातन , अज्ञेय , अविज्ञेय तथा अति सूक्ष्म है । गीता के परमात्मा में वह सब था , यह सब है , और वह सब रहेगा जिसको हम जानते थे , जानते हैं और आगे जानेंगे ।
गीता स्पष्ट कहता है ----गीता सूत्र ..7.12- 7.13 के माध्यम से की परमात्मा और मनुष्य के बीच एक पतला झीना भावों का परदा है , लेकिन जो इस परदे को समझ लेते हैं वे परमात्मा तुल्य हो जाते हैं । परमात्मा रचित यह झीना परदा मनुष्य के रुख को भोग की ओर रखता है जसको त्रिगुणी माया का नाम दिया गया है ।
Prof. Albert Einstein कहते हैं ---मैं परमात्मा को वैसा नहीं देखता जैसी तस्बीर लोगों नें बनाई है , मैं उसको प्रकृति के नियमों में देखता हूँ जिनसे यह ब्रह्माण्ड है । महान वैज्ञानिक वही कह रहा है जो बात गीता कहता है , क्या फर्क है गीता के दो श्लोकों में जिनको ऊपर बताया गया है और आइन्स्टाइन के बचनों में ?
गीता कहता है ---तूं जो चाहे वह कर लेकिन उसका परिणाम तेरे को मिलेगा , तूं उसके परिणाम से बच नहीं सकता अतः तू करके दुखी न हो , करनें के पहले सोच की तूं क्या करनें जा रहा है ?
गीता का कर्म वह नहीं जिसको हम कर्म कहते हैं , गीता का कर्म है --------
भूतभावोद्भवकरो विसर्ग: अर्थात जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले ,वह कर्म है ---गीता 8.3
और भावातीत है -------
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:----गीता 2.16
अर्थात सत्य भावातीत है और सत्य ही
परमात्मा है ।
====ॐ=====

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