गीता श्लोक 5.10 कहता है .........
परमात्मा केंद्रित ब्यक्ति कर्म करता हुआ , कर्मों के बन्धनों से मुक्त रहता हुआ इस भोग संसार में
कमलवत रहता है ।
गीता यहाँ जो कह रहा है उसको समझनें के लिए कम से कम गीता के निम्न पन्द्रह श्लोकों को तो देखना ही
पडेगा -------
2.47-2.48, 3.4, 3.19-3.20, 5.6-5.7, 5.10, 6.4-6.5, 18.49-18.50, 18.54-18.56
गीता के ये श्लोक कहते हैं .......
भोग तत्वों से परिपूर्ण इस संसार में तुम हो , भौतिक रूप से इस के परे पहुँचना सम्भव नहीं लेकिन भोग
तत्वों के प्रति होश बना कर रहनें वाला समत्व योगी द्रष्टा रूप में कमलवत रहता है । यह स्थिति पानें में
एक पल से भी कम समय लग सकता है और कई जन्म भी कम पड़ सकते हैं लेकिन यह पल मिलता सब को है ।
इस पल को जो पकड़ कर कमलवत स्थिति में पहुँच गया , वह है सन्यासी - बैरागी और जो चूक गया वह है भोगी ।
मंदिरों में , तीर्थों में , गुरुओ के आश्रमों में लोग इस कमलवत स्थिति को पाने में ब्यस्त हैं लेकिन ये
लोग इस भोग संसार के गुरुत्व - आकर्षण से कितना बच पाते हैं , यह उनको ही पता होगा ।
साधना में जो लोग अपनी साधना - उर्जा को अपनें अहंकार का भोजन बना दिया , वे तो गये और जो
अपनी उर्जा को अहंकार को पिघलानें में लगा दिया , वे पा लेते हैं उसके आनंद को जो -------
परमानंद है ।
परमानंद में पहुँचा ब्यक्ति परम तुल्य होता है ।
=====ॐ======
Monday, December 14, 2009
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