कर्म फल का त्याग परमात्मा मय बनाता है .......गीता श्लोक 5.12
गीता का यह श्लोक क्या कह रहा है ?
क्या है, त्याग ? पहले इस बात को समझना चाहिए । त्याग करना मनुष्य के बश में नहीं यह तो प्रभु का प्रसाद है जो साधना के फल के रूप में मिलता है । जिसको हम त्याग समझते हैं , वह भोग का एक अंग है । जिस कर्म में फल की इच्छा न हो वह कर्म , योग होता है ।
जिसको करते समय यह पता चलता हो की मैं यह कर्म कर रहा हूँ , वह कर्म , भोग कर्म होता है और जिस कर्म के होनें का पता न चले , वह कर्म , योग कर्म होता है ।
आज विज्ञानं कहता है ---जो है वह उर्जा का रूपांतरण है और इस बात को दर्शन प्रारंभ से कहता आया है ।
मनुष्य जिस उर्जा से है वह उर्जा एक परम उर्जा , निर्विकार उर्जा है । जब यह उर्जा मन-बुद्धि के स्पेस में पहुंचती है तब यह विकारों से भर जाती है और मनुष्य गुणों का गुलाम बन जाता है ।
आसक्ति ,कामना , क्रोध , मोह , भय और अहंकार का एक - एक करके त्याग नहीं किया जाता , इन सब का त्याग एक समय में हो जाता है जब --------
अन्तः करन की उर्जा निर्विकार हो जाती है ।
कर्म को अपनें स्वार्थ के लिए नहीं करना चाहिए , कर्म को प्रकृति के प्रतिकूल नहीं करना चाहिए , जिस कर्म से प्रकृति की जरुरत पूरी होती है , वह कर्म , योग कर्म है ।
कर्म को भोग का साधन न बनायें , इसे परमात्मा को अर्पित करे ।
=====ॐ========
Saturday, December 19, 2009
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