मन का गुलाम न बनों , मित्र बनों ---गीता ..6.24- 6.36 तक
यहाँ श्री कृष्ण और अर्जुन के माध्यम से जो बात हमें मिलती है उस की समझ ही योग है ।
मन से मित्रता कैसे स्थापित की जा सकती है ? इस बात को समझनें के लिए आप देखिये और समझिये गीता की निम्न बातों को -------
[क] इंदियों के स्वभाव को जानों [ गीता - 15.9 ]
[ख] बिषयों के सम्मोहन को समझो [गीता - 3.34 ]
[ग] इन्द्रिय - मन सम्बन्ध को समझो [ गीता - 2.60 , 2.67 ]
[घ] इन्द्रिय- बिषय के योग से जो कर्म होता है , वह भोग है [गीता - 5.22 ]
[च] भोग कर्म के सुख में दुःख का बीज होता है [गीता - 2.14 , 5.22 , 18.38 ]
[छ] कर्म इन्द्रियों को हठात बश में करनें का प्रयाश , अहंकार को सघन करता है [गीता - 3.6 ]
[ज] इंदियों को बिषयों से दूर करनें से क्या होगा ? मन तो उन-उन बिषयों पर मनन करता ही रहेगा [ गीता -2.59 ]
[झ] इन्द्रियों को मन से बश में करो [गीता - 3.7 ]
अर्जुन का प्रश्न है ----हे प्रभु ! मैं मन को कैसे बश में करू ?---गीता ....6.34 - 6.35
परम श्री कृष्ण कहते हैं ----
यह काम अभ्यास एवं बैराग्य से संभव है --बड़ा सा प्रश्न और उसका छोटा सा जबाब । अब आप जबाब को समझ लें ------
तन से बैरागी की तरह कोई अपनें को बना सकता है लेकीन .......
मन से बैरागी दुर्लभ हैं ।
बैराग्य अभ्यास का परिणाम है ।
कोई बैरागी बन नहीं सकता , बैराग्य स्वतः घटित होता है ।
====ॐ======
Wednesday, December 30, 2009
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