Tuesday, December 22, 2009

गीता-ज्ञान ...31

योगी या संन्यासी कौन है ?----गीता श्लोक ...6.1

गीता का यह सूत्र बता रहा है ---योगी एवं संन्यासी के लक्षण , सूत्र कहता है -------
[क] वह जो अग्नि का त्यागी है , योगी या संन्यासी नहीं ।
[ख] वह जो क्रियाओं का त्यागी है , योगी या संन्यासी नहीं ।
वह जो कर्म फल के आश्रय के बिना कर्म करता है , योगी या संन्यासी है ।

इस सूत्र को ठीक से जो समझ गया वह कर्म - योग में प्रवेश पा सकता है ,अतः इसको हम जाननें की
कोशिश करते हैं ।
यहाँ इस सूत्र में अग्नि शब्द क्या भाव रखता है ?
यहाँ अग्नि का अर्थ है वह उर्जा जो कर्म के लिए प्रेरित करती है अर्थात गुण-समीकरण की ऊर्जा।
मनुष्य गुणों के प्रभाव में कर्म करता है और गुण तीन प्रकार के होते हैं ; सात्विक, राजस, तामस ।
सात्विक गुण प्रभु की ओर ले जाता है , राजस गुण भोग में पहुंचाता है और तामस गुण मोह,भय एवं
आलस्य से बाधता है ।
गुण-समीकरण की उर्जा - मन,बुद्धि में प्रवाहित होती है और यह ध्रितिका के नाम से तब जानी जाती है जब यह
गुण प्रभावित होती है । ध्रितिका एवं बुद्धि के लिए आप को गीता के निम्न श्लोकों को देखना चाहिए ----
2.41, 18.29---18.35 तक ।
गीता कहता है बुद्धि एवं ध्रितिका दो प्रकार की होती हैं ; एक सविकार और दूसरी निर्विकार जिनको
क्रमशः अनिश्चयात्मिका एवं निश्चयात्मिका कहते हैं । गीता में इनको स्पष्ट करनें के लिए दो और शब्द हैं --byabhiichaarinii--abhyabhiichaarinii ।

गीता कहता है ---कर्म से कोई भाग नहीं सकता , कर्म तो करना ही पडेगा , अब यह उसपर निर्भर है की वह जो
कर्म कर रहा है वह उसे क्या देगा --सुख या दुःख ।
गीता का कर्म वह है जो भावातीत की स्थिति में पहुंचाए और यह तब संभव होगा जब कर्म में --------
[क] कोई चाह न हो ।
[ख] कोई अहंकार न हो ।
[ग] कोई मोह न हो ।
[घ] कोई लोभ न हो ।
[च] कोई भय न हो ।
[छ ] कोई आलस्य न हो ।
[ज] कोई क्रोध भाव न हो ।
जब ऐसे कर्म होते हैं तब -----
ज्ञान मिलता है और ज्ञान से ---
प्रकृति-पुरुष का बोध होता है और जब यह होता है तब वह ब्यक्ति ----
योगी होता है ....
संन्यासी होता है ।

====ॐ=====

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