यस्य सर्वे समारम्भाः कामसंकल्पवर्जिताः ।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधाः ॥ गीता 4.19
गीता यहाँ जो कह रहा है उसे हमें अपनें सोच का विषय बनाना चाहिए , गीता कहता है -----
जो कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखता है , जिसका कर्म काम-संकल्प रहित होता है , वह पंडित है ।
आप जरा सोचें की आज हमलोग पंडित की क्या परिभाषा करते हैं ?, आज पंडित शब्द मर चुका है , हमलोग इस पवित्र शब्द को मारे हैं , बात तो पचानें लायक नहीं है लेकिन है , सच ।
पंडित , ज्ञानी , सम-दर्शी , स्थिर-प्रज्ञ , गुणातीत, .........
ये सभी शब्द एक की ओर इशारा करते हैं और वह है .....
सन्यासी जो परमात्मा तुल्य ब्यक्ति है ।
यहाँ अब गीता के कुछ सूत्र दिए जा रहे हैं जो आप को काम-संकल्प रहित कर्म की ओर आप के ध्यान को
ले जा सकते हैं ।
गीता श्लोक 2.11------सम-भाव ब्यक्ति पंडित है ।
गीता श्लोक 2.55------कामना रहित , आत्मा केंद्रित ब्यक्ति , स्थिर प्रज्ञ है ।
गीता श्लोक 3.17-3.18-----आत्मा केंद्रित ब्यक्ति भावातीत की स्थिति में कर्म करता है ।
गीता श्लोक 4.18-----------कर्म में अकर्म एवं अकर्म में कर्म देखनें वाला सभी कर्मो को करनें में सक्षम है
गीता श्लोक 6.1-6.4,6.24---संकल्प एवं कर्म-फल की चाह से जो कर्म होते हैं वे कर्म योगी के कर्म हैं और
--------------------------संकल्प से कामना उठती है ।
गीता श्लोक 6.27----------राजस गुन के साथ परमात्मा से जुड़ना कठिन है ।
गीता श्लोक 2.52----------मोह के साथ बैराग्य पाना कठिन है ।
क्या गीता के इस श्लोकों को देखनें के बाद भी कोई संदेह की संभावना है ?
=======ॐ======
Monday, December 7, 2009
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