गीता श्लोक 5.3 कहता है ------
द्वेष,द्वन्द एवं आकांक्षा रहित ब्यक्ति , सन्यासी है ।
हीरे बहुत बड़े नहीं होते , गीता सूत्र अपनें में परम हीरे हैं , आप इनसे दूर न रहें ये तो आप को हर पल बुलाते हैं ।
गीता के ऊपर दिए गए सूत्र को समझनें के लिए पहले आप देखें........
गीता सूत्र 5.10, 5.11, 5.23, 16.21
फ़िर देखें गीता सूत्र .........
3.5, 18.11, 18.48, 2.45, 3.27, 3.33, 5.22, 18.38, 2.14 और इनके बाद इनको आप अपनें जीवन में उतारें तब आप बनेंगे , गीता सन्यासी ।
गीता का सूत्र 5.3 अर्जुन के प्रश्न -5 के संदर्भमें कहा गया है जिसमें अर्जुन कर्मों के संन्यास एवं कर्म-योग को समझना चाहते हैं । अर्जुन का दूसरा प्रश्न कर्म एवं ज्ञान से सम्बंधित था और यहाँ कर्म संन्यास तथा कर्म योग को जानना चाहते हैं , यह है अर्जुन की भ्रमित बुद्धि का नतीजा ।
कर्म-संन्यास शब्द के दो अर्थ हो सकते हैं ; कर्म न करना और कर्म को संन्यास पानें का माध्यम बनाना ।
गीता का अर्जुन संदेह में नहीं है पूर्ण रूप से भ्रमित है , वह एक कदम भी आगे नहीं चलना चाहता और श्री कृष्ण उसे चलाना चाहते हैं । अर्जुन कर्म सन्यास का भाव लगा रहे हैं , कर्म का त्याग करना और परम श्री कृष्ण उनको कर्म की पकड़ से मुक्त करनें की दवा दे रहे हैं , यह दोनों का प्रयाश चलता रहता है और गीता का अंत आजा है । निराकार परम श्री कृष्ण गीता में एक सिद्ध सांख्य - योगी हैं और अर्जुन मोह के कारण सिकुड़े हुए हैं ।
अर्जुन उठना नहीं चाहते और श्री कृष्ण उनको उठानें का प्रयाश करते हैं ।
सिद्ध योगी अंधकार में डूबे भोगी को बताना चाहते हैं की तुमको परेशांन होनें की कोई बात नहीं है , मैं भी एक दिन तेरे जैसा ही था , वे उसको बाताना चाहते हैं , जिसको उन्होंनें पाया है लेकिन एवरेस्ट से बोल रहे सिद्ध - योगी की बात को तराई में बैठे भोगी को कैसे सुनाई पड़ सकती है ?
गीता में परम श्री कृष्ण कहते हैं --------
हे अर्जुन!कर्म न करनें की बात के बारे में तो तूं सोच न क्योकि कोई भी जीवधारी कर्म मुक्त नहीं हो सकता , कर्म के संचालक गुन हैं , ऐसे गुन प्रभावित सभी कर्म भोग कर्म हैं जिनके सुख में दुःख का बीज होता है , जो भोग के समय सुख की झलक तो दिखाते हैं लेकिन बाद में दुःख मिलता है । आसक्ति रहित कर्म से सिद्धि मिलती है , सिद्धि से सत का पता चलता है और तब वह योगी पारा भक्ति में हर पल हर कर्म में परमात्मा को देखता है ।
हे अर्जुन! यह अच्छा मौका तेरे को मिला है , इसको अपनें हाथ से न जाने दे , तूं इस युद्ध को अपनें कर्म-योग के रूप में देख , तूं इस करम में करम बंधनों को अच्छी तरह से यहाँ समझ सकता है ।
गीता की यात्रा तो अनंत है लेकिन मैं अपनी इस यात्रा को यहीं समाप्त करता हूँ ।
=====ॐ=======
Friday, December 11, 2009
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