कर्म की रचना कौन करता है ?
गीता श्लोक 5.14 कहता है ------
कर्म,कर्म-फल एवं कर्तापन की रचना परमात्मा नहीं करता , मनुष्य का स्वभाव करता है ।
गीता का यह श्लोक जिस बात को कह रहा है उसको माननें वाले आज कितनें हैं ?---सोचिये इस बात पर
गीता कहता है [ गीता श्लोक 8।3]--
भूतभावोद्भवकरो विसर्गः , कर्मः अर्थात जिसके करनें से भावातीत की स्थिति मिले वह कर्म है , आप इस कर्म की परिभाषा को किस तरह से देखते हैं ?
जो हम कर्म समझते हैं वे भोग कर्म हैं उनके होने के पीछे गुणों की उर्जा होती है । गीता के लिए ये कर्म एक माध्यम हैं जिनसे वे कर्म होनें की संभावना होती है जो भावातीत में पहुंचाते हैं ।
मनुष्य एक मात्र ऐसा जीव है जो भोग को समझ कर भोग की पकड़ से मुक्त हो कर योग में कदम रख सकता है ।
मनुष्य भोग से योग में पहुँच कर गुणों को पहचान कर गुनातीत को समझ सकता है ।
करता भाव अहंकार की छाया है , यह बात मैं नहीं , गीता कह रहा है [गीता 3.27] और इसकी समझ
कर्म-योग की एक कड़ी है । कर्म फल की चाह एक कामना है जो राजस गुण का एक मजबूत तत्त्व है ।
गीता कह रहा है की कर्म , कर्मफल की सोच तथा करता भाव का होना यह सब परमात्मा रचित नहीं है अपितु
यह सब मनुष्य के स्वभाव से आता है ।
गीता कहता है [गीता -8.3 ]-----मनुष्य का स्वभाव , अध्यात्म है ....अब आप सोचिये एक तरफ -गीता श्लोक 5.12 कहता है ---मनुष्य के स्वभाव कर्म,कर्मफल एवं कर्ताभाव का निर्धारण स्वभाव से होता है और -------
गीता श्लोक 8.3 कहता है मनुष्य क स्वभाव अध्यात्म है तो क्या अध्यात्म यह सब निश्चित करता है ?
नहीं ऐसा नहीं है ------
भोग कर्म भोग के तत्वों को बताते हैं , भोग तत्वों की समझ भोग से योग में ले जाती है इसके कारन
मनुष्य का भोग आधारित स्वभाव अध्यात्म बन जाता है और जब ऐसा होता है तब वह ब्यक्ति भोगी नहीं
योगी बन गया होता है जो यह समझ गया होता है की -------
हम सुखी क्यों हैं ?
हम दुखी क्यों हैं ?
हमारे अन्दर कर्ताभाव क्यों है ?
हम कर्म फल की सोच क्यों कर रहे हैं ?
गीता पढना उत्तम है और गीता पढनें के बाद सोचना अति उत्तम है ऎसी सोच जो सोच के परे पहुंचा दे ।
=====ॐ======
Friday, December 18, 2009
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