गीता श्लोक 5.6 कहता है ..........
कर्म में करता भाव का न होना , संन्यास की पहचान है जो योग सिद्धि पर मिलता है ।
गीता में अर्जुन का प्रश्न दो और प्रश्न पाँच में कर्म-ज्ञान , कर्म - योग एवं कर्म संन्यास की बातें पूछी गयी हैं और यह श्लोक प्रश्न पाँच के सन्दर्भ में परम श्री कृष्ण बोलते हैं ।
संन्यास क्या है ? इस बात को समझना जरुरी है ।
सन्यासियों की नगरी काशी में कबीर जी लगभग एक सौ साल तक अपनें सीमित शब्दों के आधार पर बोलते रहे हैं
और कहते हैं ----
मन न रगाये रगाये योगी कपड़ा -----
आसन मारि मन्दिर में बैठे ...
नाम छोडि पूजन लगे पथरा ।
ज्ञान सागर काशी में अल्प शब्दों की किस्ती पर आसीन कबीर जी वह कह रहे हैं जिसको ब्यक्त करनें के लिए गीता में श्री कृष्ण को पाँच सौ छप्पन श्लोकों को बोलना पड़ा था ।
वेश-भूषा , खान-पान , रहन सहन से कोई सन्यासी नहीं हो सकता , हाँ , यह सब सन्यासी बनानें में मदद
कर सकती हैं यदि मार्ग में अहंकार का प्रभाव न आनें पाए तब ।
आप एक और छोटी सी बात को देखें -------
चाह गयी , चिंता गयी , मनवा बे परवाह
और गीता कहता है ----
चिंता करता पन की पहचान है .....
करता भाव अहंकार की छाया है ।
कम पढ़े लिखे कवि की बात में और सांख्य - योगी श्री कृष्ण की बात में क्या आप को कोई अन्तर नजर आता है ?
गीतका संन्यास वह है -----
जिसमें गुणों के तत्वों की पकड़ न के बराबर हो .....
भोग की पकड़ न के बराबर हो ....
काम,कामना की पकड़ न हो ......
क्रोध-लोभ की छाया तक न मिले ....
ममता .मोह , भय एवं आलस्य का अभाव हो ,और.....
अहंकार की हवा न लगनें पाये , लेकिन गीता आगे कहता है .....
ऐसे लोग दुर्लभ होते हैं
चाहे आप परम श्री कृष्ण के संग रहें या कबीर का साथ पकड़ें ...
चाहे आप नानक के संग रहें या.......
परम हंस राम कृष्ण के संग ....
झोली में जो मिलेगा वह .....
वह होगा जो शायद आप को न भाये ....
पहले तैयारी करिए और तब .......
संग खोजिये ।
====ॐ=======
Saturday, December 12, 2009
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