पूर्ण रूप से कर्म त्याग संभव नहीं है - गीता सूत्र - 18.11
गीता श्लोक - 18.11 - 18.12 कहते हैं .......
जीव धारी पूर्ण रूप से कर्म त्याग नहीं कर सकता लेकीन कर्म में कर्म फल की चाह का न होना ही कर्म - फल
का त्याग है । कर्म यदि कर्म फल की चाह के साथ किया जाए तो उस कर्म का फल वर्तमान में एवं मरनें के बाद भी भोगना पड़ता है ।
अब आप इस सम्बन्ध में गीता सूत्र - 3.5, 18.11, 18.48 - 18.50 को एक साथ देखें -----
जिसको हम कर्म समझते हैं वह भोग कर्म है , ऐसे कर्म दोष रहित नहीं हो सकते और इन कर्मों के सुख
में दुःख का बीज होता है । आसक्ति रहित कर्म से कर्म - योग की सिद्धि मिलती है जो ज्ञान - योग की
परा निष्ठा होती है जिसके माध्याम से परमात्मा का बोध होता है ।
गीता में कर्म - ज्ञान को अध्याय तीन में ब्यक्त किया गया है जबकि कर्म की परिभाषा सूत्र 8.3 में एवं ज्ञान की परिभाषा सूत्र - 13.2 में दी गयी है , इस स्थिति में अर्जुन बुद्धि स्तर पर कैसे समझ सकते हैं की कर्म क्या है और ज्ञान क्या है ?
गीता में यदि आप बुद्धि स्तर पर कुछ समझना चाहते हैं तो सम्पूर्ण गीता को अनेक बार पढ़ना पडेगा और तब
बुद्धि कही किसी एक पर केन्द्रित हो पायेगी ।
गीता गुणों का विज्ञान है और गुण - विज्ञान में गुण - तत्वों की पकड़ के सम्बन्ध में होश बनाना पड़ता है ।
गुण - तत्वों के आकर्षण का न होना ही गीता की साधना है ।
======ॐ=======
Monday, February 15, 2010
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