Monday, February 15, 2010

गीता ज्ञान - 77

गीता श्लोक - 18.1 - 18.17 तक

गीता अध्याय 18 का प्रारंभ अर्जुन के प्रश्न से हो रहा है - अर्जुन कहते हैं - हे प्रभु ! आप मुझे त्याग एवं संन्यास के तत्वों को पृथक - पृथक बताएं ।
परम श्री कृष्ण अर्जुन को कर्म - ज्ञान [ अध्याय - 3 में ], कर्म - योग एवं कर्म संन्यास [अध्याय - 5 में ],
स्थिर बुद्धि - योगी [अध्याय - 2 में ] कर्म एवं ब्रह की परिभाषा [ अध्याय - 8 में ] के बारे में बता चुके हैं ।
गीता का अध्याय - 18 गीता का आखिरी अध्याय है जिसका भी प्रारंभ अर्जुन के प्रश्न से हो रहा है अर्थात
अभी भी अर्जुन अतृप्त ही हैं । गीता अध्याय - 18 में सन्यास एवं त्याग के सम्बन्ध में ऐसी कौन सी नयी
बात है जिसको पहले के अध्यायों में नही दिया गया है ? संभवतः एक भी ऐसी बात नहीं मिलेगी ।
यदि अर्जुन गीता को स्थिर मन से सूना होता तो अध्याय - 18 में सभी श्लोक अर्जुन के होते वह भी धन्यबाद के
रूप में लेकीन ऐसा है नहीं । आइये ! देखते हैं गीता के कुछ और सूत्रों को ------
[क] सूत्र - 3.27, 18.17, 5.6
गीता कहरहा है ... करता भाव अज्ञान एवं अहंकार की छाया है और करता भाव रहित ब्यक्ति ब्रह्म मय होता है ।
[ख] सूत्र - 18.5, 18.6, 18.8 - 18.12 तक
गीता कह रहा है .....त्याग गुणों के आधार पर तीन प्रकार के होते हैं लेकीन सात्विक त्याग प्रभु से
मिलाता है ।
त्याग किया नहीं जाता यह तो तब स्वतः होता है जब भोग कर्म कर्म - योग हो जाता है , कर्म योग में संन्यास की किरण दिखनें लगाती है , भोग से बैराग्य हो जाता है और इस प्रकार भोग के बंधन स्वतः निष्क्रिय हो जाते हैं और
इसको गुण तवों का त्याग कहा जाता है ।
गीता कहता है ---तुमसे जो कुछ भी हो रहा है उसके होनें में जो ऊर्जा है उसको तुम समझनें की कोशिश करो ।
भोग कर्म की समझ उस कर्म को योग बनाती है , योग में बैराग्य होता है , बैराग्य ही त्याग होता है और
जब सभी भोग की पकड़ें समाप्त हो जाती हैं तब ज्ञान मिलता है । ज्ञान वह है जिस से क्षेत्र - क्षेत्रज्ञ का
बोध होता है ।
गीता की साधना एक यात्रा है जिसमें कोई भ्रम नही , कोई संदेह नही सीधे भोग से चल कर ब्रह्म में पहुंचती है ।
क्या आप इस यात्रा के यात्री बनना चाहते हैं ? यदि उत्तर है हाँ तो उठाइए गीता ।

=====ॐ=====

No comments:

Post a Comment

Followers