Saturday, February 20, 2010

गीता ज्ञान - 84

बुद्धि को समझो

गीता में श्री कृष्ण कहते हैं -----
[क] मन , बुद्धि एवं अहंकार अपरा प्रकृति के तत्त्व है --गीता - 7.4 - 7.5
[ख] बुद्धि मानों की बुद्धि , मैं हूँ --गीता - 7.10
[ग] कर्म - योग में बुद्धि निश्चयात्मिका बुद्धि होती है --गीता - 2.41
[घ] भोगी की बुद्धि अनिश्चयात्मिका बुद्धि होती है --गीता - 2.66
[च] बुद्धि गुणों के आधार पर तीन प्रकार की होती है -- गीता - 18.29 - 18.32
गीता में परम श्री कृष्ण यह भी कहते हैं [ गीता - 2।42 - 2.44 ] -- भोग - भगवान् को एक साथ एक बुद्धि में एक समय में रखना असंभव है ।

गीता [ सूत्र - 2.47 - 2.51 ] कहता है , बुद्धि - योग का फल है - सम भाव जो बिषय , ज्ञानेन्द्रियाँ , मन ,बुद्धि के होश से संभव होता है और जब तक बुद्धि प्रभु के रंग में नहीं रंगती तब तक साधना का मार्ग सीधा नहीं हो सकता ।

गीता कहता है - तूं वर्त्तमान में किस बुद्धि के अधीन हो , पहले इस बात को समझो और जब तेरे को इस बात का आभाष हो जाएगा तब तुम बुद्धि पर केन्द्रित हो कर बुद्धि की गति के साथ रह कर बुद्धि को धीरे - धीरे रूपांतरित कर सकते हो । तामस बुद्धि भय , मोह एवं आलस्य की ओर खीचती है , राजस बुद्धि भोग में रूचि रखती है और सात्विक बुद्धि परम की ओर रुख करती है अतः जो अपने बुद्धि को समझ कर
आगे चलता है , वह है - बुद्धि योग का राही ।

====ॐ======

No comments:

Post a Comment

Followers