निर्वाण प्राप्त योगी दुर्लभ हैं
देखते हैं इस सम्बन्ध में गीता के कुछ अमृत सूत्रों को ------
[क] गीता सूत्र - 2.42 - 2.44 तक
भोग - भाव और प्रभु का भाव एक साथ एक एक बुद्धि में नहीं समाते ।
[ख] गीता सूत्र - 2.41, 2.66, 7.10
बुद्धि स्वयं परमात्मा है जो भोग में अनिश्चयात्मिका बुद्धि बन जाती है और जब प्रभु की ऊर्जा से भरतीहै तब यह निश्चयात्मिका हो जाती है ।
[ग] गीता सूत्र - 12.3 - 12.4, 7.24
ब्रह्म की अनुभूति मन - बुद्धि से परे की है ।
[घ] गीता सूत्र - 6.21
निर्विकार बुद्धि में परमात्मा बसता है ।
[च] गीता सूत्र - 12.7 - 12.8, 18.54 - 18.55
प्रभु का परा भक्त प्रभु से परिपूर्ण होता है ।
[छ] गीता सूत्र - 18.49 - 18.50
परा भक्ति आसक्ति रहित कर्म से मिलती है जो ज्ञान योग की परा निष्ठा है ।
[ज] गीता सूत्र - 6.29 - 6.30
परा भक्त हर पल प्रभु में गुजारता है ।
[झ] गीता सूत्र - 7.3, 7.19, 12.5, 6.24, 14.20
माया मुक्त , निर्वाण प्राप्त योगी दुर्लभ होते हैं ।
गीता से आप और क्या चाहते हैं ?
=====ॐ====
Monday, February 1, 2010
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
No comments:
Post a Comment