Thursday, February 25, 2010

गीता ज्ञान - 88

हम क्या और कैसे करें ?

[क] गीता कहता है [ गीता - 18.48 ] -- सभीं कर्म दोष युक्त हैं ।
[ख] गीता कहता है [ गीता - 18.40 ] -- गुण अप्रभावित कोई सत्व नहीं ।
[ग] गीता कहता है [ गीता - 7.12 - 7.15 तक ] -- कोई भाव गुण रहित नहीं ।
[घ] गीता कहता है [ गीता - 2.16 ] -- सत भावातीत है .....फिर हम क्या करें और कैसे करें ?
आइये ! अब हम गीता श्लोक - 18.48 को देखते हैं ------
श्लोक कहता है --- जैसे धुएं के बिना अग्नि का होना संभव नहीं है वैसे दोष रहित कर्म का होना संभव नहीं ।
गीता आगे कहता है -- लेकीन सहज कर्मों का त्याग करना उचित नहीं है और यह भी कहता है -- गीता सूत्र - 3.4 - 3.5 में की पूर्ण रूप से कर्म - त्याग करना संभव नहीं क्योंकि कर्म गुण आधारित हैं और बिना निष्कर्मता की सिद्धि , प्रभु मय होना संभव नहीं । निष्कर्मता कर्म - त्याग से नहीं मिलती , यह कर्म के बंधनों की पकड़ के न होनें से मिलती है अतः सहज कर्मों को करते रहना चाहिए और उनमें कर्म बंधनों की पकड़ को ढीली करनें की साधना करते रहना चाहिए जिसको गीता कर्म - योग कहता है ।
सहज कर्म क्या हैं ?
जो कर्म प्रकृति की आवश्यकता हों , सहज कर्म हैं जैसे काम , बंश को चलानें के लिए, न की मनोरंजन के लिए ।
काम राम है [ गीता - 7.11 ] और काम , क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार भी हैं [ गीता - 16.21 ] , फिर यहाँ क्या करना चाहिए ? मनोरंजन के लिए काम के सम्मोहन में फसना , नरक है और संतान उत्पत्ति के लिए काम का प्रयोग , सहज कर्म है । वह काम जिसमें चाह , राग , लोभ , मोह , भय एवं अहंकार न हो , राम है ।
भोजन , भजन , सोच - जिनमें कोई चाह न हो , जिनमे कोई अहंकार न हो , जिनमें कोई मोह न हो , जिनमे कोई भय न हो अर्थात ऐसे कर्म जो गुणों के प्रभाव में न हों , वे योग कर्म हैं जो सीधे परमात्मा से जोड़ते हैं ।
गीता एक तरफ कहता है - गुण कर्म करता हैं और दूसरी तरफ कहता है - गुनातीत बन कर कर्म करो जो तुझे प्रभुमय बनाकर आवागमन से मुक्त कर देगा - बुद्धि स्तर पर गीता की इस बात को समझना आसान नहीं लेकीन कर्म - योग की साधना के लिए यही करना पड़ता है ।
कर्म में अकर्म की अनुभूति .....
देह में आत्मा की अनुभूति .....
भोग में भगवान् की अनुभूति का उदय होना ही ......
गीता का कर्म - योग है ।

======ॐ======

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