सात्विक कर्म क्या है ? गीता श्लोक - 18.23 + 18.26
गीता श्लोक - 18.19 में हमनें देखा की गुणों के आधार पर कर्म तीन प्रकार के होते हैं और यहाँ हम देखनें जा रहे हैं की सात्विक कर्म क्या है ?
सात्विक गुण को समझनें के लिए हैं - गीता सूत्र - 14.6, 14.9 - 14.10 को देखना चाहिए और फिर हमें गीता सूत्र - 18.23 एवं गीता सूत्र - 18.26 को समझनें की कोशिश करनी चाहिए ।
गीता सूत्र - 18.40 कहता है ---ब्रह्माण्ड में जो कुछ भी है उसमें तीन गुण हैं और मनुष्य जो कुछ भी ग्रहण करता है उससे उसे गुण मिलते हैं । मनुष्य के अन्दर हर पल बदलता तीन गुणों का एक समीकरण होता है गीता सूत्र - 14.10 जो मनुष्य के भोजन - भाव पर निर्भर करता है ।
कर्म , मन - इन्द्रीओं एवं बिषयों के सहयोग से होता है और ऐसा कर्म भोग कर्म है । भोग कर्मों में सुख - दुःख एवं दोष होते हैं । ज्ञानेन्द्रियों का स्वभाव है अपनें - अपनें बिषयों में भागना और हर बिषय में राग - द्वेष होते हैं जो इद्रियों को सम्मोहित करते हैं । बिषयों के सम्मोहन में आकर इन्द्रियाँ गुणों के प्रभाव में होती हैं और वे जो सूचना मन को देती हैं वह भोग - भाव से भरा हुआ होता है ।
गीता कहता है --तामस गुण से अच्छा है राजस गुण , राजस गुण से उत्तम है सात्विक गुण लेकीन गुण चाहे कोई हो सब बंधन हैं । रस्सी चाहे लोहे की हो , घास की हो या सोनें की उसका काम है बाधना फिर इसमें क्या चयन करना । सात्विक गुण निःसंदेह प्रभु से जोड़ता है लेकीन यह है बंधन ही अतः यह सोच कर इसे स्वीकार करना चाहिए की एक दिन इसको भी अलबिदा कहना है ।
गीता कहता है तेरे पास जो भी है उसे पहचानों , उसे पहचान कर उसे पीछे जानें दो और इस प्रकार तेरी यात्रा एक दिन गुणों की पकड़ से परे हो जायेगी और तू गुनातीत हो कर परम गुनातीत को जान जाएगा ।
विचारों से निर्विचार ...
बिषय से बैराग्य .......
गुणों से निर्गुण .........
देह से आत्मा ...........
आत्मा से परमात्मा तक का मार्ग है .....
गीता
=====ॐ======
Tuesday, February 16, 2010
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