गीता श्लोक - 17.5
यह श्लोक कह रहा है .........
शास्त्रों से हट कर घोर तप करनें वालों के ऊपर अहंकार , काम एवं राग का सम्मोहन होता है ।
इस श्लोक में तीन बातें हैं ; शास्त्र , राजस गुण [ काम - राग ] एवं अहंकार जिनको समझना ही इस श्लोक को समझना है ।
[क] शास्त्र क्या हैं ?
क्या वेदों को शास्त्र कहा जा सकता है ? क्या पुराण शास्त्र हैं ? क्या गीता - उपनिषद् शास्त्र हैं ? हिन्दुओं में अंतहीन दर्शन हैं जैसे - योग , वेदान्त , सांख्य , पूर्व मिमांस , न्याय एवं वैशेशिका - सब के अपनें - अपनें मार्ग हैं इनमें से किसको शास्त्र माना जाए ?
[ख] काम एवं राग राजस गुण के तत्त्व हैं और गीता कहता है [ गीता - 6.27 ] - राजस गुण के साथ प्रभु से
जुड़ना संभव नहीं है । अहंकार के लिए गीता कहता है [ गीता -3.27 ] --करता भाव अहंकार की छाया है
और अहंकार अज्ञान की जननी है [ गीता - 18।72 - 18.73 ]
गीता वह शास्त्र है जो सब के लिए है चाहे वह हिदू हो , चाहे वह जैन हो , चाहे वह बुद्धिस्ट हो या किसी और मान्यता
से सम्बंधित हो । गीता तन से मन , मन से बुद्धि और बुद्धि से चेतना तक की यात्रा कराकर कहता है ----
अब तूं उसको देख जो मन - बुद्धि से परे का है अर्थात गुनातीत , भावातीत , निर्विकार परम अक्षर एक ओंकार ।
=====ॐ======
Sunday, February 14, 2010
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