Thursday, September 30, 2010

गीता अमृत - 43


कर्म योग समीकरण - 24

गीता में प्रभु श्री कृष्ण बार - बार अलग - अलग ढंग से एक बात को कहते रहते हैं और वह बात है :----
हे अर्जुन ! तूं आसक्ति के प्रभाव में युद्ध न कर , आसक्ति रहित स्थिति में युद्ध कर , ऐसा करनें से
तुझे सिद्धि मिलेगी और तूं उसे देख सकेगा जो अभी तेरी बुद्धि में नहीं आ पा रहा है ।
प्रभु की इस बात के लिए आप कम से कम गीता में तीन श्लोकों को देखें जो नीचे दिए गए हैं ........
[क] श्लोक - 3.19
प्रभु कहते हैं .........
हे अर्जुन ! अनासक्त भाव में कर्म करनें वाला परम ब्रह्म की अनुभूति से गुजरता है ॥
[ख] श्लोक - 3.20
यहाँ प्रभु कहते हैं .......
अर्जुन ! तूं राजा जनक की कहानी तो सूना ही होगा जिनको बिदेह कहा जाता है और एक सफल सम्राट थे ।
राजा जनक को आसक्ति रहित कर्म करनें से सम भाव की सिद्धि मिली थी जिस से उनको अपनें कर्म में
प्रभु दीखते रहते थे ।
[ग] श्लोक -5.10
प्रभु यहाँ कहते हैं .......
अर्जुन ! तेरे को मालूम होना चाहिए की -----
आसक्ति रहित कर्म करनें वाला भोग कर्मों में भी कमलवत रहता है ॥
यदि कोई हिमालय की सबसे ऊंची छोटी से बोल रहा हो तो हम - आप जो तराई में हैं , क्या उसकी बात को
सुन सकते हैं ? सीधा सा उत्तर है - नहीं ॥
सत पुरुषों से हम क्यों दूर रह जाते हैं ?
सत पुरुषों से हम क्यों नहीं जुड़ पाते ?
सत पुरुष हमें जो बताना चाहते हैं , हम उसे क्यों नहीं समझ पाते ?
इसका कारण एक है :-----
हमारी भाषा भोग की है और .....
उनकी भाषा में योग भरा होता है ॥
वे हिमालय से बोलते हैं और ......
हम पाताल में बैठे होते हैं ॥
योगी की भाषा योगी समझता है ----
भोगी की भाषा भोगी समझता है ॥
योगी और भोगी की दोस्ती संभव नहीं , हाँ ......
भोग से योग में पहुँचना ही हम सब का उद्देश्य है ॥

==== ॐ =====

Wednesday, September 29, 2010

गीता अमृत - 42


कर्म योग समीकरण - 23

गीता श्लोक - 14.19 से 14.25 तक

अर्जुन का पहला प्रश्न है :-----
स्थिर प्रज्ञ की पहचान क्या है ? और .....
चौदहवां प्रश्न है :------
गुनातीत योगी की क्या पहचान है ?
इन दोनों प्रश्नों का एक उत्तर है , जिसको आप देख सकते हैं ------
गीता सूत्र - 2.54 से 2.72 तक
और गीता सूत्र - 14.22 से 14.27 तक में ॥

प्रभु कहते हैं :----

हे अर्जुन ! मोह, कामना , काम , संकल्प , विकल्प , क्रोध , लोभ , अहंकार रहित ,
गुणों को करता देखनें वाला ,
सम भाव में स्थिर जो है , वह है .........
योगी ---
सन्यासी ---
बैरागी -----
स्थिर प्रज्ञ ---
गुनातीत ......
और ऐसे योगी हर पल प्रभु में बसे हुए होते हैं ॥

===== ॐ ======

Tuesday, September 28, 2010

गीता अमृत - 41


कर्म योग समीकरण - २२

गीता कहता है -----
स्वभाव: अध्यात्मं उच्यते
अर्थात मनुष्य का मूल स्वभाव अध्यात्म है ॥
अध्यात्म क्या है ?
अध्यात्म वह मार्ग है जो भोग से प्रारम्भ हो कर भगवान् में जा मिलता है ॥
गीता में प्रभु कहते हैं :-----
हे अर्जुन ! मनुष्य में तीन गुणों का एक समीकरण हर पल रहता है , गुण समीकरण में
तीन गुण होते हैं ।
जब एक गुण ऊपर उठता है तो अन्य दो स्वयं कमजोर पड़ जाते हैं । मनुष्य को , ऊपर उठा हुआ गुण
अपनें स्वभाव के अनुकूल कर्म करनें को विवश करता है और मनुष्य वैसा ही कर्म करता है ।
गुण कर्म करता हैं , गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है ।

अब आप देखना : एक तरफ प्रभु कहते हैं - अध्यात्म ही मनुष्य का स्वभाव है और दूसरी ओर कहते हैं -
गुण कर्म करता हैं । प्रभु यह भी कहते हैं - गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं , वे सभी
भोग कर्म होते हैं ।

प्रभु द्वारा बोले गए निम्न श्लोकों को आप गीता में अवश्य देखें ........
गीता - सूत्र :-- 14.10 , 3.5 , 3.27 , 3.33 , 18.59 , 18.60 , 8.3
गीता के ये सूत्र कहते हैं :------
गुण अर्थात भोग : भोग से भोग में तुम हो , काम से काम में तू है और भोग से भगवान् को अपनें स्मृति में
तेरे को ले आना है । तुम काम में रंगे हो , अपनी इस स्थिति की समझ से तूं बैराग्य में पहुँच कर राम में
पहुँच सकते हो जहां परम आनंद है ।
अभी तूं इन्द्रिय के क्षणिक सुख को परम सुख समझते हो क्यों की परम सुख का तेरे को कोई अनुभव नहीं है ,
लेकीन गुणों से परे , भोग भाव से परे भी कुछ है जिसको तूं इस भोग में खोज रहा है ।
वह जो गुणों से परे है .....
वह जो भोग से परे है ......
वह जो भोग भाव में डूबी इन्द्रियों की पकड़ से परे है .....
वह जो शांत मन में है ......
वह जो संदेह रहित बुद्धि में है .....
और वह जो तेरे ह्रदय में है .......और
उसी को तूं बाहर गुणों के माध्यम से भोग में तलाश रहा है ,
यह संभव तब होगा ....
जब तूं जहां हो उसे समझनें की कोशिश कर ॥

===== ॐ =====

Monday, September 27, 2010

गीता अमृत - 40


कर्म योग समीकरण - 21

आज टाइम्स ऑफ़ इंडिया में माया पर किसी महा पुरुष द्वारा दिए गए संकेतों को देखनें से
ऐसा लगा की लोग बोलते तो हैं गीता के नाम पर पर गीता शब्द मात्र लोगों को आकर्षित
करनें के लिए प्रयोग किया जाताहै , ऐसा मुझे लगता है । यदि भारत सरकार कोई
ऐसी क़ानून पास करदे जो गीता - उपनिषद् पर बोलनें वालों
के मुख को बंद करदे तो मैं समझता हूँ ,
ज्यादा तर आश्रमों का ब्यापार बंद हो जाएगा ।
भारत में गीता और उपनिषद् - दो ऐसे रत्न हैं जिनको समझनें के लिए सम्पूर्ण दुनिया से
लोग यहाँ आये लेकीन उनको मिला क्या , गीता - उपनिषद् के नाम पर लोगों की
अपनी बनाई कथाएं ?

आप यहाँ गीता के कुछ सूत्रों को देखें जो माया से सम्बंधित हैं
और जिनमें मेरा योग दान कुछ नहीं है ।
मैं चाहता हूँ , गीता आप से बोले और मैं श्रोता बना रहूँ ,
जब कोई प्रभु की बात को नहीं समझ सकता
तो मेरी बात को क्या समझेगा ?
[क] गीता - 8.40
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में गुणों से अप्रभावित कुछ नहीं है , सिवाय प्रभु के ॥
[ख] गीता - 7.14
तीन गुणों से निर्मित माया को समझना आसान नहीं ॥
[ग] गीता - 7.12
माया [ गुणों से निर्मित एक सूक्ष्म माध्यम ] प्रभु से है लेकीन प्रभु मायातीत - गुनातीत है ॥
[घ] गीता - 7.13,7.15
माया में जिसको रस मिलता है वह मायापति से दूर रहता है , ऐसे आसुरी प्रकृति के लोग होते हैं , उनके जीवन का केंद्र , भोग होता है ॥
[च] गीता - 14.26
अखंडित भक्ति से माया से बाहर निकला योगी ब्रह्म स्तर का होता है ॥

प्रभु की बातें ऎसी हैं जैसे साफ़ स्थिर झील के पानी पर पूर्णिमा का चाँद खिला हो ,
क्यों भागते हो इधर - उधर ,
बैठो इस चाँद के पास और देखो इसमें प्रभु को , दो घडी , क्या गीता के यहाँ दिए गए
सूत्रों से अधिक स्पष्ट बातें
कहीं और मिलेंगी जो .......
माया के रहस्य को स्पष्ट कर सकें ?

===== ॐ ======

गीता अमृत - 39

कर्म-योग समीकरण - 20

गीता के माध्यम से प्रभु अर्जुन से कहते हैं :-------
अर्जुन ! राजस गुण के साथ प्रभु की भक्ति संभव नही ...... गीता सूत्र - 6.27
अर्जुन तो मोह में हैं , फिर प्रभु ऎसी बात क्यों कह रहे हैं ?
इस बात पर हम देखते हैं , बाद में अभी गीता का एक और श्लोक देख लेते हैं :----------
यहाँ प्रभु गीता प्रारम्भ में कहते हैं ........
अर्जुन बैरागी बननें की बात तो तूं कर न , क्यों की तामस गुण के तत्त्व मोह के साथ बैरागी होना
असंभव है -- गीता सूत्र - 2.52
अब गीता के दो सूत्रों को एक साथ देखते हैं ......
गीता सूत्र - 14.7, 14.12
यहाँ प्रभु कहते हैं :-------
कामना , लोभ , राग राजस गुण के तत्त्व हैं और सूत्र -3.37 में कहते हैं , काम का रूपांतरण क्रोध है और काम
राजस गुण का केंद्र है ।

गीता जैसे है वैसे एक - एक श्लोक पर बोलना बहुत सीधा है ,
लोग जैसे चाहते हैं गीता के श्लोकों को
तोड़ - मडोर लेते हैं
लेकीन गीता के सभी श्लोकों को, एक बिषय से सम्बंधित जो हैं ,एकत्र करके
कुछ ध्यान की बात को निकालना , अति कठिन है ।
अब आप एक और उदाहरण देखें :-----
अध्याय तीन में कर्म और ज्ञान की बातें हैं जब की कर्म की परिभाषा अध्याय आठ के प्रारम्भ में है और
ज्ञान की परिभाषा अध्याय तेरह के प्रारम्भ में है ।

गीता को पढ़ना अति आसान .........
गीता के श्लोकों पर प्रवचन देना अति आसान ........
लेकीन गीता को अपनें ध्यान का बिषय बनाना अति कठिन ॥

====== ॐ ======

Sunday, September 26, 2010

गीता अमृत - 38

कर्म - योग समीकरण - 19

गीता के तीन सूत्र ........
[क] सूत्र - 6.5
जिसका मन उसके नियंत्रण में है , वह अपना मित्र है ॥
[ख] सूत्र - 6.6
जीता हुआ मन मित्र बन जाता है ॥
[ग] सूत्र - 6.7
सम भाव मन दर्पण पर प्रभु की तस्बीर दिखती है ॥

प्रभु रहस्य में चलनें के लिए पहला काम और आखिरी काम जो मनुष्य के बश में है वह है -----
मन की बागडोर को अपनें हाँथ में रखना ।
ऊपर देखिये प्रभु के सूत्रों को , प्रभु कहते हैं - नियंत्रित मन वाला , अपना मित्र है और आगे कहते हैं ---
हारा हुआ मन मित्र बन जाता है , यह बात कुछ टेढ़ी सी दिखती है , हारा हुआ , मित्र बनें , यह बात
सही नहीं दिखती क्यों की जो हारा है वह जीतने की उम्मीद में मित्र जैसा ब्यवहार तो कर सकता है लेकीन
मित्र बन जाए , यह संभव नहीं लेकीन यह प्रभु की बात है , जरुर इसमें गंभीरता होनी चाहिए ।
हारा हुआ मनुष्य धोखा दे सकता है लेकीन मन मनुष्य नहीं है । प्रभु गीता में कहते हैं -----
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि अर्थात इन्द्रियों में मन , मैं हूँ । निर्विकार मन , परमात्मा का प्रतिबिम्ब है और
बासना से परिपूर्ण मन , नरक का मार्ग है । बासना से भरा मन , भोगी पुरुष है और बासना रहित
मन , परमात्मा है ।
गीता के ऊपर दिए गए तीन श्लोकों को आप बार - बार मनन करते रहें एक दिन इस मनन में
आप की राह स्वयं बदल जायेगी और आप को पता तक न चल पायेगा ॥

===== ॐ =======

Friday, September 24, 2010

गीता अमृत - 37


अहंकार युक्त कर्म

गीता के दो सूत्र :-------
[क] सूत्र - 18.17
अहंकार रहित , बुद्धि का गुलाम नहीं होता ॥
[ख] सूत्र - 18.24
अहंकार युक्त कर्म , राजस कर्म है ॥

अहंकार अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में एक है जो सात्विक , राजस एवं तामव - तीनों गुणों में
होता है । अहंकार एक अति खतरनाक तत्त्व है जो बैराग्य से पुनः भोग में उतार ले आता है ।
कर्म चाहे कोई क्यों न हो चाहे वह सात्विक हो , चाहे वह राजस हो या चाहे वह तामस हो यदि इनमें
अहंकार है तो वह कर्म भोग कर्म होगा और ऐसे कर्म से आगे की यात्रा होनी संभव नहीं ।
गीता कहता है :---
कर्म तो गुणों के कारण मनुष्य करता है लेकीन ........
मैं करता हूँ , ऐसा भाव अहंकार से आता है [ गीता - सूत्र , 3.27 ]
अहंकार को आगे से नहीं पीछे से पकडनें का अभ्यास करना , भोग कर्म को ........
योग में रूपांतरित करता है ॥
पीछे से पकडनें का भाव है .........
अहंकार समाप्ति पर उसे देखना की वह कैसे आया और कैसे गया , यह अभ्यास यह दिखाएगा --
अहंकार अज्ञान का रस है जो कामना टूटनें पर उत्पन्न होता है [ गीता - 2.62 ] और
मनुष्य के मन - बुद्धि को अस्थिर बना देता है ॥

==== ॐ =======

Wednesday, September 22, 2010

गीता अमृत - 36


कर्म - योग समीकरण - 17

गीता के एक परिवार के छः सूत्र ---------
[क] गीता सूत्र - 6.27
राजस गुण प्रभु की ओर रुख होनें नहीं देता , क्यों ?........
.... सूत्र - 3.37
.... क्योंकि काम - क्रोध राजस गुण से हैं , जिनके प्रभाव में पाप होता है ।
.... सूत्र - 2.62
.... क्योंकि कामना टूटनें की आशंका , क्रोध पैदा करती है ।
.... सूत्र - 2.56
.... क्योंकि क्रोध , राग , भय रहित ब्यक्ति , समत्व - योगी होता है ।
.... सूत्र - 4.10
.... क्योंकि क्रोध , राग , भय रहित ब्यक्ति , ग्यानी होता है ।
.... सूत्र - 16.21
.... क्योंकि काम , क्रोध लोभ नरक के द्वार हैं ।
यहाँ काम , कामना , क्रोध , लोभ राजस गुण के तत्त्व हैं और ......
भय है तामस गुण का तत्त्व अतः हम कह सकते हैं की ...............
राजस और तामस गुण प्रभु - मार्ग के अवरोध हैं ॥
प्रभु केवल यह नहीं चाहते की .......
अर्जुन युद्ध करें अपितु ........
यह चाहते हैं की इस युद्ध में ......
अर्जुन गुनातीत - योगी बन कर युद्ध में उतरें ॥

गीता खोज का सागर है जहां कई परिवार के सूत्र हैं जैसे काम , कामना , क्रोध
लोभ , मोह , भय , आलस्य आदि और इन सब तत्वों में अहंकार की भूमिका क्या है ,
इस बात के भी कुछ सूत्र हैं ।
कर्म योग , ज्ञान योग , कर्मातीत और ग्यानातीत , सब कुछ आप को गीता देता है ,
आप क्या चाहते हैं .......
यह जरुरी नहीं ,
गीता आप से क्या चाहता है , गीता में यह खोजना ,
गीता की साधाना है ॥

===== ॐ ========

Tuesday, September 21, 2010

गीता अमृत - 35


कर्म - योग समीकरण - 16

गीता के दो सूत्र ------

[क] सूत्र - 6.2 - 6.4
सूत्र कहते हैं -----
कर्म - योग और कर्म संन्यास , दोनों एक हैं और .....
संकल्प रहित कर्म , कर्म - योग है ॥
गीता आगे कहता है -----
कामना संकल्प की जननी है ....
कामना की जननी , आसक्ति है ....
आसक्ति की जननी मनन है .......
मनन की जननी है .....
इन्द्रियों का बिषयों से मिलना ॥
गीता की इतनी बातें क्या कुछ कम हैं ?

ऐसा ब्यक्ति जो अपनें दैनिक कर्म को योग में बदल कर संसार से बैराग्य का मजा
लेना चाहता है , उसके लिए ये बातें पर्याप्त हैं ॥
अपनें परिवार में रहते हुए , बैरागी जीवन का मजा कुछ और ही होता होगा , आइये
करते हैं अभ्यास , बैराग्य में कदम रखनें का ॥

===== ॐ ======

Monday, September 20, 2010

गीता अमृत - 34

कर्म- योग समीकरण - 15
गीता के दो सूत्र ---------
[क] सूत्र - 6.10
सूत्र के माध्यम से प्रभु अर्जुन को कह रहे हैं ........
किसी से आकर्षित न होनें वाला , तन , मन से एकांत बासी , प्रभु केन्द्रित ब्यक्ति , योगी होता है ॥
[ख] सूत्र - 18.2
यहाँ प्रभु कहरहे हैं .......
कामना रहित कर्म से ब्यक्ति संन्यासी बनता है और कर्म में कर्म फल की चाह का न होना कर्म - त्याग
कहलाता है ॥

गीता को लोग एक बिषय बना दिए ; ऐसा बिषय जो सर्प की तरह हो , लोग दूर से भय के कारण इसे पूजें , लेकीन इसको खोल कर पढ़ें नहीं ।
पहले तो संस्कृत भाषा में लिखे धार्मिक ग्रन्थ ब्राहमणों की पूँजी थे ,
इनको कोई हाँथ से छु नहीं सकता था , पढ़ना तो दूर रहा , लेकीन समय बदला और
लोग भी बदल गए और आज ब्राहमणों के अलावा अन्य वर्ण के लोग हिन्दू धार्मिक ग्रंथों को
अधिक पढनें वाले हैं ।
श्री चन्द्र मोहन रजनीश [ ओशो ] , श्री श्री महेश योगी - एनेकों अन्य लोग ब्राहमण नही थे / हैं लेकीन
लोग उनको गुरु की भाँती पूजते हैं ।

वक्त के साथ - साथ बहुत बदलाव आया लेकीन प्राचीन ग्रंथों के अमृत सूत्र बिना किसी धर्म
के नाम से जोड़े , पाठशालाओं में प्रवेश न पा सके , यह दुःख का बिषय जरुर है ।
गीता में लगभग 200 से भी कुछ अधिक ऐसे सूत्र हैं जिनका सीधा सम्बन्ध मनोविज्ञान से है
और जिनमें फ्रायड - जुंग जैसे मनो वैज्ञानिकों से भी उत्तम विचार हैं लेकीन ऐसे सूत्र आम
लोगों से परे हैं क्योंकि गीता हिन्दुओं से सम्बंधित है ।
कुरान शरीफ - बाइबल और अन्य धार्मिक ग्रंथों में अनेक रहस्य दबे
पड़े हैं जिनको आम लोग नहीं पा सकते ।

गीता के छोटे - छोटे सूत्रों को यदि स्कूल के पाठ्य क्रमों में बिना धर्म के साथ जोड़े ,
डाला जाए तो आगे आनें वाली नश्ल के पास वैज्ञानिक एवं मनो वैज्ञानिक अनेक शोध के काबिल
रहस्य हो सकते हैं , जिन से आम लोगों को भविष्य में फ़ायदा हो सकता है ॥

ऊपर के सूत्रों में आपनें देखा की संन्यास और योग का आपस में क्या सम्बन्ध है और दोनों को
त्याग जो
स्वतः हो , कैसे जोड़ता है ॥

===== ॐ =====

Sunday, September 19, 2010

गीता अमृत - 33


कर्म - योग समीकरण - 14

गीता के दो सूत्र ------

[क] गीता सूत्र - 2.48

आसक्ति रहित कर्म समत्व योग में पहुंचाता है ॥
[ख] गीता सूत्र - 5.19
समत्व योगी ब्रह्म में होता है ॥

क्या है आसक्ति और क्या है समत्व योगी ?

आसक्ति, मन की वह ऊर्जा है जो भोग की ओर खीचती है ।

इस बात को थोड़ा सा समझते हैं -------

पांच ज्ञानेन्द्रियों का काम है , अपनें - अपनें बिषयों को खोजते रहना या यों कहें की ........
वह जो गुणों का गुलाम है उसकी इन्द्रियाँ बिषयों से आकर्षित होती रहती हैं और जो इस बात को समझता है ,
वह कर्म - योग में होता है ।
जो अपनें इन्द्रियों का गुलाम नहीं है और इन्द्रिय - बिषय के मिलनें के परिणाम को
समझता है , वह सम भाव योगी हो सकता है यदि उसकी समझ मजबूत हो तो ।

गीता के छोटे - छोटे सूत्रों को अपना मार्ग बनानें वाला ब्यक्ति स्वतः -------
श्री कृष्ण मय हो उठेगा , एक दिन ॥

==== ॐ =====

Friday, September 17, 2010

गीता अमृत - 32

कर्म - योग समीकरण - 13

गीता के तीन सूत्र कर्म - योग के आखिरी चरण की ओर इशारा करते हुए क्या कहना चाह रहे हैं ,
देखते हैं , यहाँ ।
[क] गीता सूत्र - 4.22
समत्व - योगी को कर्म नहीं बाँध पाते ॥
[ख] गीता सूत्र - 5.6
योग में उतारे बिना संन्यासी बनना कष्ट मय होता है ॥
[ग] गीता सूत्र - 5.7
निर्विकार , योग युक्त योगी कर्म बंधनों से मुक्त होता है ॥
कर्म बंधन , समत्व - योगी , सन्यासी , निर्विकार और योग युक्त , गीता के पांच शब्द ऊपर के
तीन सूत्रों में दीखते हैं । आइये संक्षेप में इन शब्दों को देखते हैं -----
कर्म बंधन हैं भोग की रस्सियाँ जिनको गुण तत्त्व भी कहते हैं जैसे अहंकार , कामना , क्रोध , लोभ ,
मोह , भय , आलस्य , जो इन तत्वों के प्रभाव के बिना कर्म करता है वह है .....
समत्व योगी
सन्यासी
निर्विकार योगी
और आगे चल कर जब योग फलित होता है तब यह योगी, योग युक्त हो जाता है , जो .....
समाधि - पूर्व की स्थिति होती है । समाधि , वह स्थिति है जिसमें सत के अलावा और कुछ
नहीं दिखता और जो दिखता है वह शब्दों में ब्यक्त नहीं हो सकता ॥
भोग कर्म को हम कर्म की संज्ञा देते हैं
भोग कर्म , योग में पहुँचानें के माध्यम हैं , बशर्ते .....
इनमें पकड़ के प्रति होश बनाया जाए , जब होश बन जाती है तब ......
वह कर्म करता , कर्म योगी होता है । कर्म योगी जब कर्म योग में आगे - आगे चलता है तब वह .....
पहले समत्व योगी बनता है -----
फिर संन्यासी होता है -----
और बाद में योग युक्त में पहुँच कर बैरागी बन कर समाधी में प्रवेश कर जाता है ॥
समाधि में पहुंचा योगी निराकार प्रभु का
साकार रूप होता है ॥

==== ॐ =====

गीता अमृत - 31

कर्म योग समीकरण - 12

देखते हैं यहाँ गीता के तीन सूत्रों को -------

[क] सूत्र - 5.3
सूत्र कहता है .... घृणा , कामना एव द्वन्द रहित सभी बंधनों से मुक्त , संन्यासी होता है ॥
[ख] सूत्र - 5.5
यहाँ प्रभु अर्जुन से कहते हैं ...... अर्जुन ! सांख्य - योग एवं अन्य योगों का परिणाम एक होता है ॥
[ग] सूत्र - 4.38
यहाँ प्रभु कहते हैं ..... सभी योगों का फल , ज्ञान है ॥
गीता के तीन सूत्र सत गुरु की भाँती हमारे साथ हैं , यहाँ मन - बुद्धि क्या संदेह उठा सकते हैं , सब कुछ
तो दर्पण की तरह साफ़ है ।

सीधी सी गणित है --- बिषयों को समझो , इन्द्रियों को समझो , इनके चाल पर निगाह रखो - ऐसा करनें से
मन स्थिर होगा , मन स्थिर होनें से बुद्धि संदेह रहित होगी और जब यह स्थिति आती है तब ......
वह ब्यक्ति प्रभु की ओर चल पड़ता है , बिना कुछ सोचे - समझे , इस स्थिति को कह सकते हैं -----
निष्काम यात्रा । यात्रा कर्म के माध्यम से हो तो अति सरल क्यों की कर्म बिना कोई होता ही नहीं तो
क्यों न कर्म के ही माध्यम से सत की ओर चलें ॥

=== ॐ ====

Wednesday, September 15, 2010

गीता अमृत - 30

कर्म - योग समीकरण - 11

यहाँ हम गीता के दो सूत्रों को देखते हैं -------
[क] गीता सूत्र - 6.2
संन्यास एवं योग , दोनों एक हैं .......
[ ख ] गीता सूत्र - 5.2
कर्म - योग एवं संन्यास , दोनों मुक्ति - पथ हैं लेकीन .......
कर्म - योग , कर्म संन्यास से उत्तम है ॥

यहाँ प्रभु श्री कृष्ण क्या कहना चाहते हैं ?
एक बार कहते हैं , दोनों एक हैं और एक बार कहते हैं .....
कर्म - योग , कर्म संन्यास से उत्तम है ॥
गीता में संन्यास शब्द के दो भाव हैं ; यहाँ संन्यास शब्द का वह भाव है जो हम लोग समझते हैं ,
अर्थात संन्यास एक कृत्य है , जिसमें कर्म का त्याग कर्म - योग का फल नहीं है अपितु
कर्म - त्याग किसी कारण बश हुआ है ।

प्रभु गीता में कहते हैं -----
यदि कर्म - योग का फल कर्म संन्यास है तो दोनों एक हैं अर्थात एक के बिना दूसरा संभव नहीं
हो सकता और यदि कोई बिना योग में उतरे संन्यासी बनता है तो यह उसके लिए बहुत ही
कष्ट प्रद होगा । कर्म - योग साधना में जब कर्म बंधनों का प्रभाव समाप्त हो जाती है तब
बिना चाह , बिना अहंकार एवं बिना किसी कारण जो कर्म होता है , वह उस ब्यक्ति को
संन्यासी बना देता है ।

सन्यासी या योगी की पहचान उसके वेश - भूसा से नही हो सकती , उसके साथ रहनें से जब उसकी
ऊर्जा हमारे अन्दर भरनें लगती है तब पता चलता है की यह ब्यक्ति योगी - सन्यासी है ॥
केशव , एक महान शास्त्री परम हंस जी से बहश करनें के लिए आये , बोलते रहे - बोलते रहे
और जब चुप हो जाते थे तब परम हंस जी उनके पैरों में गिर कर कहते -----
आप चुप क्यों हो गए ? आप जो कुछ भी कह रहे हैं , वह अति उत्तम हैं , कहते रहिये ।
केशव अपनें संस्मरण में लिखते हैं .......
परमात्मा है या नहीं , कुछ कहना उचित नहीं लेकीन इस ब्यक्ति को देखनें से ऐसा लगता है की ----
हो न हो यही परमात्मा हो ॥

==== ॐ ======

Tuesday, September 14, 2010

गीता अमृत - 29


कर्म - योग समीकरण - 10

[क] गीता सूत्र - 3.8
कर्म से तो बचना संभव नहीं , कर्म तो करना ही है लेकीन कर्म करनें में भोग की रस्सी को ढीली करते रहना है ।
[ख] गीता सूत्र - 18.11 , 18.48
सभी कर्म दोष युक्त हैं , कर्म में उनके अन्दर छिपे दोषों को समझना , कर्म की पकड़ को ढीली करता है ।
[ग] गीता सूत्र - 4.21
कामना रहित जब कर्म होते हैं तब उन कर्मों से पाप नहीं हो सकते ।

गीता के तीन सूत्र भोग कर्म को योग कर्म में बदल सकते हैं यदि ----
कर्म करने वाला इन तत्वों पर होश बनाए रखे ॥

=== ॐ ======

Monday, September 13, 2010

गीता अमृत - 28

कर्म - योग समीकरण - 09

गीता के तीन सूत्र

[क] गीत सूत्र - 2.47
प्रभु अर्जुन से कहते हैं -- जब कर्म करता के मन - बुद्धि में कर्म - फल की चाह न हो और वह कर्म करे तो
ऐसा कर्म, कर्म - योग होता है ।
[ख] सूत्र - 5.3
यहाँ प्रभु कहते हैं ---- कर्म - फल की चाह न रखनें वाला कर्म करता , संन्यासी होता है ।
[ग] सूत्र - 6.1
प्रभु कहते हैं ---- कर्म - फल की चाह न रहनें वाला , संन्यासी एवं योगी दोनों होता है ।

कर्म फल की उम्मीद रख कर कर्म करनें वाला , भोगी है और बिना इस उम्मीद से जो कर्म करता है , वह
योगी एवं सन्यासी दोनों होता है, यह बात प्रभु अर्जुन से कहते हैं जो युद्ध - क्षेत्र से पलायन करना चाहता है ,
मोह के सम्मोहन में आ कर ।

गीता कर्म - योग में कुछ तत्वों की साधना करनी होती है , वे भोग - तत्त्व हैं ......
आसक्ति
कामना
संकल्प - विकल्प
अहंकार
लोभ
मोह
भय एवं --
आलस्य
कर्म में जो इन तत्वों का गुलाम न हो कर उतरता है वह है .....
ग्यानी ....
योगी ....
सन्यासी ...
बैरागी ॥
आप को यदि कर्म योगी बननें की गहरी भूख हो तो आप जो कुछ भी करते हैं उनमें ऊपर बताये गए
तत्वों की छाया नहीं आनी चाहिए ॥

===== ॐ =======

गीता अमृत - 27

कर्म - योग समीकरण - 08

पहले गीता के तीन सूत्र .......

[क] सूत्र - 18.20
कामना रहित कर्म ही कर्म संन्यास है -----

[ख] सूत्र - 2.51
कर्म फल की कामना जिस कर्म में न हो , वह कर्म मुक्ति का मार्ग होता है ------

[ग] सूत्र -4.19

कामना - संकल्प रहित ब्यक्ति ग्यानी होता है --------

गीता में प्रभु अर्जुन से क्या कह रहे हैं ?
कामना , कर्म फल की चाह [ यह भी एक कामना ही है ] और संकल्प रहित कर्म , ग्यानी , सन्यासी बनाता है
एवं यह कर्म मुक्ति पथ है । क्या इस से भी स्पष्ट कोई बात हो सकती है ?

अब ज़रा सोचिये -- जहां दो सेनायें आमने - सामनें खडी हों , चारों ओर युद्ध के बाद्य बज रहे हों , वहाँ, जहां
युद्ध किसी भी वक्त प्रारम्भ होनें की उम्मीद हो , ऎसी परिस्थिति में इतनी गंभीर बात की ---
कामना रहित हो कर इस युद्ध में भाग लो और तब देख की क्या होता है ? ऎसी बात प्रभु श्री कृष्ण जैसा
योगी राज ही कर सकता है ।

मन में कोई हार - जीत का भाव न आनें पाए , जब तक युद्ध हो रहा हो , यह क्या एक साधना नहीं तो
और क्या है ?
युद्ध को साधना बनाना क्या किसी सामान्य ब्यक्ति की सोच हो सकती है ?
क्या अर्जुन कामना रहित हो कर कुरुक्षेत्र के धर्म क्षेत्र में अपने अस्त्र - सस्त्र के साथ गए हुए हैं ?
साधना कठिन ही होती है , यहाँ प्रभु के बचनों से आप समझ सकते हैं , साधना की गंभीरता ।
यदि साधना मंदिर में जा कर दो रुपये का प्रसाद चढा कर पूरी होती हो तो भारत का हर ब्यक्ति
महाबीर - बुद्ध होता ।
प्रभु के कर्म - योग को समझना और समझ कर उस मार्ग पर चलना किस प्रकार का
हो सकता है ,
इस बात को आप स्वयं समझें ॥

===== ओम ======

Sunday, September 12, 2010

गीता अमृत - 26

कर्म योग समीकरण - 07


गीता के चार सूत्र ..........
[क] सूत्र - 18.10 , 18.23
संदेह रहित सम भाव में नियमित कर्म जो आसक्ति , राग - द्वेष रहित होते हैं , उनको सात्विक
कर्म कहते हैं ॥
[ख] सूत्र - 18.24
मैं करता हूँ , इस भाव से कामना पूर्ति के लिए किये गए कर्म , राजस कर्म [ भोग कर्म ] होते हैं ॥
[ग] सूत्र - 18.25
ममता , आलस्य के प्रभाव में जो कर्म होते हैं , उनको तामस कर्म कहते हैं ॥
अब पांचवां सूत्र देखिये --------
सूत्र - 3.27
कर्म करता तो गुण हैं और करता मैं हूँ का भाव , अहंकार की उपज है ॥

कर्म मनुष्य के लिए एक सहज माध्यम है जो एक तरफ नरक में पहुंचता है और दूसरी तरफ प्रभु में जा
मिलता है । प्रभु कहीं कोई बस्तु नहीं , कोई सूचना नहीं जो time space में हो और इस से प्रभावित हो ,
यह तो एक अब्यक्त , निराकार , सीमा रहित द्रष्टा / साक्षी रूप में सब का आदि , मध्य एवं
अंत का कारण है ।
तामस एवं राजस गुणों से सात्विक गुण में पहुँचना , मनुष्य के हाँथ में है
लेकीन इस के आगे की यात्रा प्रभु
का प्रसाद रूप में किसी - किसी को मिलती है ।

गुण चाहे कोई भी क्यों न हो , वह बंधन है , बंधन बंधन ही रहेगा और जब तक मनुष्य बंधन मुक्त नहीं होता ,
वह प्रभु मय नहीं हो सकता ।
मनुष्य के पास असीमित बुद्धि है , वह वही कर्म करता है जो अन्य जीव करते हैं , अन्य जीव अपनें - अपनें
कर्मों के सम्बन्ध में अपनी - अपनी बुद्धि केवल एक दिशा में लगा सकते हैं , भोग की
दिशा में , जबकि
मनुष्य इस भोग को योग की दिशा दे सकता है और यदि ऐसा हुआ तो वह साधारण मनुष्य नहीं रह जाता, वह प्रभु तुल्य हो जाता है ।

===== ॐ ======

Friday, September 10, 2010

गीता अमृत - 25

कर्म - योग समीकरण - 06

कर्म योग - ज्ञान योग समीकरण

यहाँ देखिये गीता के कुछ सूत्रों को जो इस प्रकार हैं ------
4.38 , 2.48 , 4.10 , 5.11 , 6.1 , 6.2 , 6.4 , 6.10 , 16.21 , 18.2
आप इन सूत्रों को बार - बार पढ़ें और इन का मनन करें ।
बार - बार चिंतन करनें से जो मिलेगा , वह होगा कर्म - योग एवं ज्ञान - योग का सम्बन्ध , जो इस प्रकार हो
सकता है ..........
भोग भाव से जो कर्म होता है वह प्रभु से दूर ले जाता है । काम , क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं और ये तीनों
तत्त्व राजस गुण के हैं । गीता कहता है [ 6.27 ] ...... राजस गुण के साथ प्रभु की ओर रुख करना कठिन है ।
आसक्ति , कामना , कर्म फल की चाह , अहंकार , संकल्प - विकल्प रहित कर्म , भोग कर्म को , योग - कर्म
बनाते हैं । योग एवं संन्यास एक साथ रहते हैं और दोनों एक हैं ; योग सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति होती है और
ज्ञान प्राप्ति के साथ भोग - तत्वों की पकड़ स्वतः छूट जाती है जिसको संन्यास कहते हैं । संन्यास का यह भाव
नहीं की घर से भाग कर काशी , मथुरा में जाकर भिखारी बन जाना और सर के बालों को कटवा कर ,
मैरून कपड़ों को धारण करना , संन्यास का गीता जो भाव बता है , वह इस प्रकार है -----
वह जिसकी पीठ भोग की ओर हो और आँखें प्रभु में टिकी हो , वह है सन्यासी । गीता यह कहता है ------
योगी / सन्यासी / बैरागी / ग्यानी जो भी करते हैं वह कर्म उनको गंगोत्री बना कर रखते हैं ,
कर्म के माध्यम हैं ....... तन , मन एवं बुद्धि ॥
कर्म - योगी की यात्रा है -----
## भोग से योग की .....
## अज्ञान से ज्ञान की , ओर जो इस यात्रा में कामयाब हुआ वह .......
आवागमन से मुक्त हो गया ॥

===== ॐ ======

Thursday, September 9, 2010

गीता अमृत - 24


कर्म - योग समीकरण - 05

गीता में प्रभु कहते हैं ........
देखिये गीता सूत्र - 3.5 , 3.27 , 3.33

मनुष्य सोचता है , वह कर्म को करने वाला है लेकीन यह उसका स्व जनित भ्रम है ; ऐसा भ्रम जो उसके DNA में समा चुका है । मनुष्य के चालाकी की कोई सीमा नहीं , वह गिरगिट से भी जल्दी अपना रंग बदल लेता है ।
गीता में प्रभु अर्जुन से कहते हैं .......
अर्जुन ! सुन , तूं कर्म करनें वाला नहीं है , मनुष्य तो गुणों से विवश किया जाता है , कर्म
करनें के लिए ।
गुणों से मनुष्य का स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है लेकीन ऐसा कर्म ------
भोग होता है ॥
जब मनुष्य के अन्दर ऐसा भाव आता है की वह कर्म करनें वाला है , उस समय वह ब्यक्ति
अहंकार के सम्मोहन में होता है ।।

गीत में जो बात प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , वह मात्र अर्जुन के लिए नहीं है , वह हम सब के लिए आज भी अपनानें लायक है । अर्जुन मोह में पलायन करना चाहते हैं और प्रभु इस सुअवसर को हाँथ से जानें नहीं देना चाहते ।
योगी वक़्त का इन्तजार नहीं करता , वह हर क्षण को सुअवसर बना लेता है , जैसा प्रभु यहाँ कर रहे हैं ।
जो ब्यक्ति अपनें कर्म में , करता गुणों को देखता है
वह ....
योगी है ----
वैरागी है ----
सन्यासी है , और वह .....
योग वित् होता है ॥

=== ॐ ======

Wednesday, September 8, 2010

गीता अमृत - 23

कर्म -योग समीकरण - 04

[क] गीता सूत्र - 2.52


मोह के साथ वैराग्य में उतरना असंभव है ......

[ख] गीता सूत्र - 18.72 , 18.73

संदेह एवं अज्ञान , मोह की पहचान है ......

[ग] गीता सूत्र - 6.27

राजस गुण प्रभु मार्ग का सबसे मजबूत रुकावट है .......

गीता के चार सूत्र यहाँ आप को कर्म - योग के सम्बन्ध में दिए गए ,

वह जो कर्म - योग के माध्यम से
प्रभु में पहुँचना चाहता है , उसको इन सूत्रों को अपनाना चाहिए ।


राजस एवं तामस गुण भोग से जोड़ते हैं और सात्विक गुण प्रभु की ओर रुख करता है
लेकीन एक स्थिति ऎसी भी
आती है जब सात्विक गुण भी रुकावट बन जाता है ॥

==== ॐ ======

Tuesday, September 7, 2010

गीता अमृत - 22


कर्म योग समीकरण - 03

[क] गीता सूत्र - 2.71
कामना , ममता ,स्पृहा , अहंकार रहित स्थिर बुद्धि, योगी होता है ॥
[ख] गीता सूत्र - 18.2 , 6.10
कामना रहित योगी / सन्यासी होता है ॥
[ग] गीता सूत्र - 18.54
सम भाव में रहनें वाला कामना रहित कर्म योगी परा भक्त होता है ॥

गीता के चार सूत्र कह रहे हैं -----

स्थिर बुद्धि की स्थिति ध्यान का फल होता है ........
गुण तत्त्व या भोग तत्त्व जैसे ------
आसक्ति ,
कामना ,
क्रोध ,
लोभ ,
मोह - ममता ,
अहंकार ,
काम का सम्मोहन ,
भय ......
मनुष्य को भोगी बनाते हैं
और .....
कर्म में जब इनकी पकड़ समाप्त हो जाती है तब वह कर्म करता ......
कर्म - योगी / सन्यासी / स्थिर बुद्धि / समभाव - योगी ......
हो जाता है ॥

===== ॐ ======

Sunday, September 5, 2010

गीता अमृत - 21

कर्म - योग समीकरण - 2

कर्म - योग समीकरण में यहाँ हम तीन सूत्रों को देखनें जा रहे हैं --------
[क] गीता सूत्र - 2.59, 3.6

सूत्र कहते हैं ..... हठात इन्द्रियों को नियोजित करनें से अहंकार बढ़ता है , शरीर में नाना प्रकार की कमियाँ भी
आसक्ति हैं और फायदा भी कुछ नहीं होता क्योंकि उन - उन बिषयों पर मन तो मनन करता ही रहता है ।

[ख] गीता सूत्र - 3.7

सूत्र कहता है ....... इन्द्रियों को मन से नियोजित करनें वाला , कर्म - योगी होता है ।

पहले, कर्म योग - समीकरण में हमनें इन्द्रिय - बिषय के सम्बन्ध के बारे में गीता जो कहता है , उसे देखा और अब
इसके आगे की बात को देख रहे हैं की इन्द्रियों के भागनें की प्रबृत्ति को कैसे नियंत्रित करें ?

इन्द्रियों से पहले मैत्री बनानी चाहिए , मित्र वह होता है जो अपनें मित्र के अन्दर - बाहर की गति को समझता हो ।
गीता मूलतः गुण साधाना है , लेकीन गुणों की साधाना कर्म - माध्यम से बिषय , इन्द्रिय एवं मन की साधनाओं
से संभव हो सकती है क्यों की सीधे गुणों को पकड़ना आसान नहीं ।
अर्जुन प्रभु से अध्याय छः में एक प्रश्न करते हैं -- हे नाथ ! मन की चंचलता मुझे आप की बातों को समझनें
नहीं दे रही , मैं इसके लिए क्या करूँ ? प्रभु कहते हैं -- मन का पीछा करो , मन के पीछे - पीछे चलो और इस
अभ्यास से तूं बैराग्य में पहुँच जाएगा और बैरागी का मन प्रभु अर्थात मुझ पर स्थिर रहता है ।

गीता जीवन जीनें की नियमावली है , मात्र पढनें की किताब ही नही लेकीन .......
गीता मार्ग पर चलना कठिन काम है ----
गीता मार्ग अग्नि पथ है .......
गीता मार्ग पर चलना , तलवार की धार पर चलना है ------
गीता की यात्रा में पीठ भोग की ओर हो जाती है और मन प्रभु में केन्द्रित ।
क्या ....
हम - आप तैयार हैं , इस यात्रा के लिए ?

==== ॐ ======

Saturday, September 4, 2010

गीता अमृत - 20


कर्म - योग समीकरण -- 01

[क] गीता सूत्र - 2.60
मन इन्द्रीओं का गुलाम है ......
[ख] गीता सूत्र - 2.67
बुद्धि मन का गुलाम है ......
[ग] गीता सूत्र - 2।58
इन्द्रियों पर ऐसा नियंत्रण होना चाहिए जैसे एक कछुआ अपनें अंगो पर नियंत्रण रखता है .......
[घ] गीता सूत्र - 2.62
बिषय - इन्द्रिय मिलन मन में मनन पैदा करता है , मनन से आसक्ति , आसक्ति से कामना बनती है .....
[च] गीता सूत्र - 2.55
कामना रहित , स्थिर - प्रज्ञ होता है .....

गीता के पांच सूत्र कर्म - योग समीकरण के रूप में दिए गए ,
आप इनका प्रयोग कर सकते हैं ।
## मंदिर जानें वालों की संख्या अनेक है , लेकीन मंदिर की मूरत कोई नहीं होना चाहता -----
## प्रवचन सुनना लोगों की आदत बन चुकी है , सभी प्रवचन मुक्ति का मार्ग दिखाते हैं
लेकीन मुक्ति तो
मरनें के बाद मिलती है ,
कौन मृत्यु को देखना चाहता है ?
धर्म को मनोरंजन का माध्यम न बनाएं ,
यह किसी पल आप को खीच लेगा ।

==== ॐ ======

Friday, September 3, 2010

गीता अमृत - 19

अब इसे भी समझो

गीता सूत्र - 3.27
करता भाव , अहंकार की छाया है ..... और ----
गीता सूत्र - 18.17
अहंकार से अछूता ब्यक्ति , अपनी बुद्धि एवं कर्मों का गुलाम नहीं होता .....

जहां - जहां मैं है समझना वहाँ - वहाँ अहंकार है । जहां - जहां अहंकार है वहाँ - वहाँ प्रभु की किरण नहीं
दिखती । प्रभु की किरण को देखनें की आँख तब मिलती है जब अहंकार पिघल कर श्रद्धा में रूपांतरित हो गया
होता है ।
प्रभु आगे कहते हैं --वह जो अहंकार के सम्मोहन से परे है उसको कर्म एवं उसकी बुद्धि गुलाम नहीं बना पाते ।
प्रभु यह भी कहते हैं ..... बुद्धि , मैं हूँ [ गीता - 7.10 ] ,फिर क्यों कह रहे हैं , अहंकार रहित ब्यक्ति बुद्धि का
गुलाम नहीं होता ? जबतक बुद्धि में संदेह है , जबतक बुद्धि गुणों के सम्मोहन में है , तब तक वह बुद्धि
प्रभु को धारण नहीं कर सकती ।
गीता सूत्र - 2.42 - 2.44 में प्रभु कहते हैं -----
भोग - भगवान् , दोनों एक साथ एक बुद्धि में नही समाते ।

निर्विकार मन - बुद्धि प्रभु के निवास हैं और
सविकार मन - बुद्धि भोग के घर हैं ।
मैं का एहसाश , अहंकार का संकेत है , और
कामना , क्रोध , लोभ , मोह , वासना के प्रतिबिम्ब हैं ॥

===== ॐ ======

गीता अमृत - 18


ब्रह्म क्या है ?

देखिये ! गीता के चार सूत्र और बुद्धि स्तर पर उसे जाननें की कोशिश में लग जाइए , जो मन - बुद्धि से परे है ।

गीता सूत्र - 14.3 ......
योनिः महत ब्रह्म तस्मिन् गर्भं दधामि अहम्
जीवों का बीज मेरे अधीन रहनें वाला , ब्रह्म को योनी में मैं स्थापित करता हूँ ।
गीता सूत्र - 13.13.......
ब्रह्म न सत है , न असत है ।
गीता सूत्र - 8.3.......
अक्षरं ब्रह्म परमं
गीता सूत्र - 8.31
जगत की सूचनाओं को जो ब्रह्म के फैलाव रूप में देखता है , वह ब्रह्म मय होता है ।

कोई कहता है -----ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या .....
कोई कहता है ----
अहम् ब्रहामाष्मी -----
कोई कहता है ------
ला इलाही इल अलाह .....
और
परम श्री कृष्ण कह रहे हैं ----
ब्रह्म भी मेरे अधीन है ॥
कुछ आप सोचें कुछ मैं सोचता हूँ , दोनों जहां मिलेंगे ......
वहाँ परम शून्यता में ब्रह्म की अनुभूति होगी ही ॥

===== ॐ ======

Thursday, September 2, 2010

गीता अमृत - 17


गीता श्लोक - 13.15

प्रभु कहरहे हैं .......

[क] प्रभु इन्द्रियों का मूल श्रोत पर स्वयं इन्द्रिय बिहीन है
[ख] तीन गुणों का जन्म दाता पर स्वयं गुण रहित है
[ग] सब का पालन करता पर अनासक्त भाव में
यह बात प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , अर्जुन सुन यह मेरी स्थिति है ॥

प्रभु गीता श्लोक 10.22 के माध्यम से कहते हैं ......
इन्द्रियाणां मनश्चाष्मी , भूतानाम्श्च चेतना अर्थात -----
इन्द्रियों में मन मैं हूँ और भूतों की चेतना भी , मैं ही हूँ ।
दस इन्द्रियाँ एवं पांच बिषय , मन के फैलाव रूप में हैं , मन उस विन्दु को कहते हैं जहां पांच कर्मेन्द्रियाँ और पांच ज्ञानेन्द्रियाँ मिलती हैं । मन अपनें सुविधा के लिए इन्द्रियों का ताना - बाना फैला रखा है ।

प्रभु सातवे अध्याय में कहते हैं -----
तीन गुण और उनके भाव , मुझसे हैं लेकीन मैं गुनातीत एवं भावातीत हूँ ।
गुण मनुष्य को प्रभु से दूर रखते हैं ।
गुणों का सम्मोहन इतना गहरा होता है की कोई प्रभु की ओर अपनें को चला नहीं सकता ।
गुण प्रभु की राह में
अवरोध हैं ।

प्रभु तीसरी बात कह रहे हैं ----
मैं अनासक्त भाव में सब का पालन - हार हूँ ।
आप कल्पना कीजिये क्योंकि सभी लोग अपनें - अपनें परिवार का पालन - हार समझते हैं लेकीन उनमें से
कितनें ऐसे हो सकते हैं जो बिना आसक्ति के अपनें परिवार के लिए कुछ करते हों ?
आसक्ति का भाव है -- बिना किसी भाव के और जो कर्म का परिणाम मिले ; अच्छा या बुरा उससे संतुष्ट रहना ।

प्रभु की तीन बाते हैं - हम सब के लिए , आज से अभ्यास पर लगना है और ठीक एक माह बाद देखते हैं क्या
परिणाम होता है ?

==== ॐ =====

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