Thursday, September 9, 2010
गीता अमृत - 24
कर्म - योग समीकरण - 05
गीता में प्रभु कहते हैं ........
देखिये गीता सूत्र - 3.5 , 3.27 , 3.33
मनुष्य सोचता है , वह कर्म को करने वाला है लेकीन यह उसका स्व जनित भ्रम है ; ऐसा भ्रम जो उसके DNA में समा चुका है । मनुष्य के चालाकी की कोई सीमा नहीं , वह गिरगिट से भी जल्दी अपना रंग बदल लेता है ।
गीता में प्रभु अर्जुन से कहते हैं .......
अर्जुन ! सुन , तूं कर्म करनें वाला नहीं है , मनुष्य तो गुणों से विवश किया जाता है , कर्म
करनें के लिए ।
गुणों से मनुष्य का स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है लेकीन ऐसा कर्म ------
भोग होता है ॥
जब मनुष्य के अन्दर ऐसा भाव आता है की वह कर्म करनें वाला है , उस समय वह ब्यक्ति
अहंकार के सम्मोहन में होता है ।।
गीत में जो बात प्रभु अर्जुन से कह रहे हैं , वह मात्र अर्जुन के लिए नहीं है , वह हम सब के लिए आज भी अपनानें लायक है । अर्जुन मोह में पलायन करना चाहते हैं और प्रभु इस सुअवसर को हाँथ से जानें नहीं देना चाहते ।
योगी वक़्त का इन्तजार नहीं करता , वह हर क्षण को सुअवसर बना लेता है , जैसा प्रभु यहाँ कर रहे हैं ।
जो ब्यक्ति अपनें कर्म में , करता गुणों को देखता है
वह ....
योगी है ----
वैरागी है ----
सन्यासी है , और वह .....
योग वित् होता है ॥
=== ॐ ======
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अभी कर्म के बारे में ही सोच रही थी और आपकी पोस्ट पर निगाह पड़ी। आप सच कह रहे हैं कि व्यक्ति अपने गुणों के अधीन ही कर्म करता है।
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