Sunday, September 5, 2010

गीता अमृत - 21

कर्म - योग समीकरण - 2

कर्म - योग समीकरण में यहाँ हम तीन सूत्रों को देखनें जा रहे हैं --------
[क] गीता सूत्र - 2.59, 3.6

सूत्र कहते हैं ..... हठात इन्द्रियों को नियोजित करनें से अहंकार बढ़ता है , शरीर में नाना प्रकार की कमियाँ भी
आसक्ति हैं और फायदा भी कुछ नहीं होता क्योंकि उन - उन बिषयों पर मन तो मनन करता ही रहता है ।

[ख] गीता सूत्र - 3.7

सूत्र कहता है ....... इन्द्रियों को मन से नियोजित करनें वाला , कर्म - योगी होता है ।

पहले, कर्म योग - समीकरण में हमनें इन्द्रिय - बिषय के सम्बन्ध के बारे में गीता जो कहता है , उसे देखा और अब
इसके आगे की बात को देख रहे हैं की इन्द्रियों के भागनें की प्रबृत्ति को कैसे नियंत्रित करें ?

इन्द्रियों से पहले मैत्री बनानी चाहिए , मित्र वह होता है जो अपनें मित्र के अन्दर - बाहर की गति को समझता हो ।
गीता मूलतः गुण साधाना है , लेकीन गुणों की साधाना कर्म - माध्यम से बिषय , इन्द्रिय एवं मन की साधनाओं
से संभव हो सकती है क्यों की सीधे गुणों को पकड़ना आसान नहीं ।
अर्जुन प्रभु से अध्याय छः में एक प्रश्न करते हैं -- हे नाथ ! मन की चंचलता मुझे आप की बातों को समझनें
नहीं दे रही , मैं इसके लिए क्या करूँ ? प्रभु कहते हैं -- मन का पीछा करो , मन के पीछे - पीछे चलो और इस
अभ्यास से तूं बैराग्य में पहुँच जाएगा और बैरागी का मन प्रभु अर्थात मुझ पर स्थिर रहता है ।

गीता जीवन जीनें की नियमावली है , मात्र पढनें की किताब ही नही लेकीन .......
गीता मार्ग पर चलना कठिन काम है ----
गीता मार्ग अग्नि पथ है .......
गीता मार्ग पर चलना , तलवार की धार पर चलना है ------
गीता की यात्रा में पीठ भोग की ओर हो जाती है और मन प्रभु में केन्द्रित ।
क्या ....
हम - आप तैयार हैं , इस यात्रा के लिए ?

==== ॐ ======

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