Friday, September 17, 2010

गीता अमृत - 32

कर्म - योग समीकरण - 13

गीता के तीन सूत्र कर्म - योग के आखिरी चरण की ओर इशारा करते हुए क्या कहना चाह रहे हैं ,
देखते हैं , यहाँ ।
[क] गीता सूत्र - 4.22
समत्व - योगी को कर्म नहीं बाँध पाते ॥
[ख] गीता सूत्र - 5.6
योग में उतारे बिना संन्यासी बनना कष्ट मय होता है ॥
[ग] गीता सूत्र - 5.7
निर्विकार , योग युक्त योगी कर्म बंधनों से मुक्त होता है ॥
कर्म बंधन , समत्व - योगी , सन्यासी , निर्विकार और योग युक्त , गीता के पांच शब्द ऊपर के
तीन सूत्रों में दीखते हैं । आइये संक्षेप में इन शब्दों को देखते हैं -----
कर्म बंधन हैं भोग की रस्सियाँ जिनको गुण तत्त्व भी कहते हैं जैसे अहंकार , कामना , क्रोध , लोभ ,
मोह , भय , आलस्य , जो इन तत्वों के प्रभाव के बिना कर्म करता है वह है .....
समत्व योगी
सन्यासी
निर्विकार योगी
और आगे चल कर जब योग फलित होता है तब यह योगी, योग युक्त हो जाता है , जो .....
समाधि - पूर्व की स्थिति होती है । समाधि , वह स्थिति है जिसमें सत के अलावा और कुछ
नहीं दिखता और जो दिखता है वह शब्दों में ब्यक्त नहीं हो सकता ॥
भोग कर्म को हम कर्म की संज्ञा देते हैं
भोग कर्म , योग में पहुँचानें के माध्यम हैं , बशर्ते .....
इनमें पकड़ के प्रति होश बनाया जाए , जब होश बन जाती है तब ......
वह कर्म करता , कर्म योगी होता है । कर्म योगी जब कर्म योग में आगे - आगे चलता है तब वह .....
पहले समत्व योगी बनता है -----
फिर संन्यासी होता है -----
और बाद में योग युक्त में पहुँच कर बैरागी बन कर समाधी में प्रवेश कर जाता है ॥
समाधि में पहुंचा योगी निराकार प्रभु का
साकार रूप होता है ॥

==== ॐ =====

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