Tuesday, September 28, 2010

गीता अमृत - 41


कर्म योग समीकरण - २२

गीता कहता है -----
स्वभाव: अध्यात्मं उच्यते
अर्थात मनुष्य का मूल स्वभाव अध्यात्म है ॥
अध्यात्म क्या है ?
अध्यात्म वह मार्ग है जो भोग से प्रारम्भ हो कर भगवान् में जा मिलता है ॥
गीता में प्रभु कहते हैं :-----
हे अर्जुन ! मनुष्य में तीन गुणों का एक समीकरण हर पल रहता है , गुण समीकरण में
तीन गुण होते हैं ।
जब एक गुण ऊपर उठता है तो अन्य दो स्वयं कमजोर पड़ जाते हैं । मनुष्य को , ऊपर उठा हुआ गुण
अपनें स्वभाव के अनुकूल कर्म करनें को विवश करता है और मनुष्य वैसा ही कर्म करता है ।
गुण कर्म करता हैं , गुणों से स्वभाव बनता है , स्वभाव से कर्म होता है ।

अब आप देखना : एक तरफ प्रभु कहते हैं - अध्यात्म ही मनुष्य का स्वभाव है और दूसरी ओर कहते हैं -
गुण कर्म करता हैं । प्रभु यह भी कहते हैं - गुणों के प्रभाव में जो कर्म होते हैं , वे सभी
भोग कर्म होते हैं ।

प्रभु द्वारा बोले गए निम्न श्लोकों को आप गीता में अवश्य देखें ........
गीता - सूत्र :-- 14.10 , 3.5 , 3.27 , 3.33 , 18.59 , 18.60 , 8.3
गीता के ये सूत्र कहते हैं :------
गुण अर्थात भोग : भोग से भोग में तुम हो , काम से काम में तू है और भोग से भगवान् को अपनें स्मृति में
तेरे को ले आना है । तुम काम में रंगे हो , अपनी इस स्थिति की समझ से तूं बैराग्य में पहुँच कर राम में
पहुँच सकते हो जहां परम आनंद है ।
अभी तूं इन्द्रिय के क्षणिक सुख को परम सुख समझते हो क्यों की परम सुख का तेरे को कोई अनुभव नहीं है ,
लेकीन गुणों से परे , भोग भाव से परे भी कुछ है जिसको तूं इस भोग में खोज रहा है ।
वह जो गुणों से परे है .....
वह जो भोग से परे है ......
वह जो भोग भाव में डूबी इन्द्रियों की पकड़ से परे है .....
वह जो शांत मन में है ......
वह जो संदेह रहित बुद्धि में है .....
और वह जो तेरे ह्रदय में है .......और
उसी को तूं बाहर गुणों के माध्यम से भोग में तलाश रहा है ,
यह संभव तब होगा ....
जब तूं जहां हो उसे समझनें की कोशिश कर ॥

===== ॐ =====

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