Sunday, September 26, 2010

गीता अमृत - 38

कर्म - योग समीकरण - 19

गीता के तीन सूत्र ........
[क] सूत्र - 6.5
जिसका मन उसके नियंत्रण में है , वह अपना मित्र है ॥
[ख] सूत्र - 6.6
जीता हुआ मन मित्र बन जाता है ॥
[ग] सूत्र - 6.7
सम भाव मन दर्पण पर प्रभु की तस्बीर दिखती है ॥

प्रभु रहस्य में चलनें के लिए पहला काम और आखिरी काम जो मनुष्य के बश में है वह है -----
मन की बागडोर को अपनें हाँथ में रखना ।
ऊपर देखिये प्रभु के सूत्रों को , प्रभु कहते हैं - नियंत्रित मन वाला , अपना मित्र है और आगे कहते हैं ---
हारा हुआ मन मित्र बन जाता है , यह बात कुछ टेढ़ी सी दिखती है , हारा हुआ , मित्र बनें , यह बात
सही नहीं दिखती क्यों की जो हारा है वह जीतने की उम्मीद में मित्र जैसा ब्यवहार तो कर सकता है लेकीन
मित्र बन जाए , यह संभव नहीं लेकीन यह प्रभु की बात है , जरुर इसमें गंभीरता होनी चाहिए ।
हारा हुआ मनुष्य धोखा दे सकता है लेकीन मन मनुष्य नहीं है । प्रभु गीता में कहते हैं -----
इन्द्रियाणां मनश्चास्मि अर्थात इन्द्रियों में मन , मैं हूँ । निर्विकार मन , परमात्मा का प्रतिबिम्ब है और
बासना से परिपूर्ण मन , नरक का मार्ग है । बासना से भरा मन , भोगी पुरुष है और बासना रहित
मन , परमात्मा है ।
गीता के ऊपर दिए गए तीन श्लोकों को आप बार - बार मनन करते रहें एक दिन इस मनन में
आप की राह स्वयं बदल जायेगी और आप को पता तक न चल पायेगा ॥

===== ॐ =======

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