Monday, September 13, 2010

गीता अमृत - 28

कर्म - योग समीकरण - 09

गीता के तीन सूत्र

[क] गीत सूत्र - 2.47
प्रभु अर्जुन से कहते हैं -- जब कर्म करता के मन - बुद्धि में कर्म - फल की चाह न हो और वह कर्म करे तो
ऐसा कर्म, कर्म - योग होता है ।
[ख] सूत्र - 5.3
यहाँ प्रभु कहते हैं ---- कर्म - फल की चाह न रखनें वाला कर्म करता , संन्यासी होता है ।
[ग] सूत्र - 6.1
प्रभु कहते हैं ---- कर्म - फल की चाह न रहनें वाला , संन्यासी एवं योगी दोनों होता है ।

कर्म फल की उम्मीद रख कर कर्म करनें वाला , भोगी है और बिना इस उम्मीद से जो कर्म करता है , वह
योगी एवं सन्यासी दोनों होता है, यह बात प्रभु अर्जुन से कहते हैं जो युद्ध - क्षेत्र से पलायन करना चाहता है ,
मोह के सम्मोहन में आ कर ।

गीता कर्म - योग में कुछ तत्वों की साधना करनी होती है , वे भोग - तत्त्व हैं ......
आसक्ति
कामना
संकल्प - विकल्प
अहंकार
लोभ
मोह
भय एवं --
आलस्य
कर्म में जो इन तत्वों का गुलाम न हो कर उतरता है वह है .....
ग्यानी ....
योगी ....
सन्यासी ...
बैरागी ॥
आप को यदि कर्म योगी बननें की गहरी भूख हो तो आप जो कुछ भी करते हैं उनमें ऊपर बताये गए
तत्वों की छाया नहीं आनी चाहिए ॥

===== ॐ =======

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