Friday, September 10, 2010

गीता अमृत - 25

कर्म - योग समीकरण - 06

कर्म योग - ज्ञान योग समीकरण

यहाँ देखिये गीता के कुछ सूत्रों को जो इस प्रकार हैं ------
4.38 , 2.48 , 4.10 , 5.11 , 6.1 , 6.2 , 6.4 , 6.10 , 16.21 , 18.2
आप इन सूत्रों को बार - बार पढ़ें और इन का मनन करें ।
बार - बार चिंतन करनें से जो मिलेगा , वह होगा कर्म - योग एवं ज्ञान - योग का सम्बन्ध , जो इस प्रकार हो
सकता है ..........
भोग भाव से जो कर्म होता है वह प्रभु से दूर ले जाता है । काम , क्रोध एवं लोभ नरक के द्वार हैं और ये तीनों
तत्त्व राजस गुण के हैं । गीता कहता है [ 6.27 ] ...... राजस गुण के साथ प्रभु की ओर रुख करना कठिन है ।
आसक्ति , कामना , कर्म फल की चाह , अहंकार , संकल्प - विकल्प रहित कर्म , भोग कर्म को , योग - कर्म
बनाते हैं । योग एवं संन्यास एक साथ रहते हैं और दोनों एक हैं ; योग सिद्धि पर ज्ञान की प्राप्ति होती है और
ज्ञान प्राप्ति के साथ भोग - तत्वों की पकड़ स्वतः छूट जाती है जिसको संन्यास कहते हैं । संन्यास का यह भाव
नहीं की घर से भाग कर काशी , मथुरा में जाकर भिखारी बन जाना और सर के बालों को कटवा कर ,
मैरून कपड़ों को धारण करना , संन्यास का गीता जो भाव बता है , वह इस प्रकार है -----
वह जिसकी पीठ भोग की ओर हो और आँखें प्रभु में टिकी हो , वह है सन्यासी । गीता यह कहता है ------
योगी / सन्यासी / बैरागी / ग्यानी जो भी करते हैं वह कर्म उनको गंगोत्री बना कर रखते हैं ,
कर्म के माध्यम हैं ....... तन , मन एवं बुद्धि ॥
कर्म - योगी की यात्रा है -----
## भोग से योग की .....
## अज्ञान से ज्ञान की , ओर जो इस यात्रा में कामयाब हुआ वह .......
आवागमन से मुक्त हो गया ॥

===== ॐ ======

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