Friday, September 24, 2010

गीता अमृत - 37


अहंकार युक्त कर्म

गीता के दो सूत्र :-------
[क] सूत्र - 18.17
अहंकार रहित , बुद्धि का गुलाम नहीं होता ॥
[ख] सूत्र - 18.24
अहंकार युक्त कर्म , राजस कर्म है ॥

अहंकार अपरा प्रकृति के आठ तत्वों में एक है जो सात्विक , राजस एवं तामव - तीनों गुणों में
होता है । अहंकार एक अति खतरनाक तत्त्व है जो बैराग्य से पुनः भोग में उतार ले आता है ।
कर्म चाहे कोई क्यों न हो चाहे वह सात्विक हो , चाहे वह राजस हो या चाहे वह तामस हो यदि इनमें
अहंकार है तो वह कर्म भोग कर्म होगा और ऐसे कर्म से आगे की यात्रा होनी संभव नहीं ।
गीता कहता है :---
कर्म तो गुणों के कारण मनुष्य करता है लेकीन ........
मैं करता हूँ , ऐसा भाव अहंकार से आता है [ गीता - सूत्र , 3.27 ]
अहंकार को आगे से नहीं पीछे से पकडनें का अभ्यास करना , भोग कर्म को ........
योग में रूपांतरित करता है ॥
पीछे से पकडनें का भाव है .........
अहंकार समाप्ति पर उसे देखना की वह कैसे आया और कैसे गया , यह अभ्यास यह दिखाएगा --
अहंकार अज्ञान का रस है जो कामना टूटनें पर उत्पन्न होता है [ गीता - 2.62 ] और
मनुष्य के मन - बुद्धि को अस्थिर बना देता है ॥

==== ॐ =======

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